Monday, November 2, 2015
नरेन्द्र मोदी के विरोध की नपुंसक राजनीति-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
जब लड़ाई शुरु होती है तो सेना के विशेषज्ञ प्रथम रक्षा पंक्ति के ध्वस्त हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुये द्वितीय रक्षा पंक्ति और उससे भी आगे तृतीय रक्षा पंक्ति तक की तैयारी करके रखते हैं । उसी की तर्ज़ पर क्म्युनिस्ट पार्टियाँ दुनिया भर में लोकयुद्ध की तैयारी करती हैं । कम्युनिस्टों की इस रणनीति की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि उनके लोक युद्धों में सामान्य आदमी या 'लोक' सदा ग़ायब रहता है । लेकिन साम्यवादियों का दावा रहता है कि लोक मानस को सबसे ज़्यादा वही जानते हैं । यह अलग बात है कि लोक मानस को समझ पाने का उनका दावा इतिहास ने सदा झुठलाया है । भारत विभाजन के समय वे मुस्लिम लीग के साथ थे और पाकिस्तान निर्माण के समर्थक थे । 1942 में अंग्रेज़ो भारत छोड़ो के आन्दोलन के समय वे अंग्रेज़ों के साथ थे और भारतीय मानस को समझने का दावा भी कर रहे थे । 1962 में चीन के आक्रमण में वे चीन के साथ थे और फिर भी भारत के लोगों के मन को समझने का दावा कर रहे थे । 1950 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के सभी समूहों को मिला कर वे लगभग साढ़े पाँच सौ की लोक सभा में वे पचास से ज़्यादा सीटें कभी जीत नहीं सके , फिर भी उनका दावा रहता है कि भारतीय जन के असली प्रतिनिधि वही हैं ।
कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में वे लोकतांत्रिक पद्धति से कभी जीत नहीं सकते , इसलिये तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति से लेकर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके जम्मू कश्मीर को अलग स्वतंत्र राज्य बनाने के प्रयास करते रहे । लेकिन जन विरोध के कारण वे वहाँ भी असफल ही रहे । तब उन्होंने अपनी रणनीति बदली और कांग्रेस में घुस कर वैचारिक प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करने में लग गये । उसमें उन्होंने अवश्य किसी सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली । कांग्रेस को भी उनकी यह रणनीति अनुकूल लगती थी । इससे कांग्रेस को अपनी तथाकथित प्रगतिशील छवि बनाने में सहायता मिलती रही और कम्युनिस्टों को बौद्धिक जुगाली के लिये सुरक्षित आश्रयस्थली उपलब्ध होती रही । लेकिन इन आश्रयस्थलियों में सुरक्षित बैठकर बौद्धिक जुगाली करते इन तथाकथित साहित्यकारों , रंगकर्मियों , फिल्मनिर्माताओं और इतिहासकारों में एक अजीब हरकत देखने में मिलती है । भारतीय इतिहास, संस्कृति , साहित्य इत्यादि को लेकर जो अवधारणाएँ ,अपने साम्राज्यवादी हितों के पोषण के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचलित की थीं , ये भलेमानुस भी उन्हीं की जुगाली कर रहे हैं , जबकि रिकार्ड के लिये साम्यवादी जनता में यही प्रचारित करते हैं कि उनके जीवन का अंतिम ध्येय ही साम्राज्यवाद की जड़ खोदना है । भारत में यह विरोधाभास आश्चर्यचकित करता है । ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को लेकर जो अवधारणाएं स्थापित कर रहे थे , वे भारतीयता के विरोध में थीं । उनका ध्येय भारत में से भारतीयता को समाप्त कर एक नये भारत का निर्माण करना था , जिस प्रकार चर्च ने यूनान में यूनानी राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये यूनान का निर्माण कर दिया और इस्लाम ने मिश्र में वहाँ की राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये वर्तमान मिश्र का निर्माण कर दिया । इसी को देख कर डा० इक़बाल ने कभी कहा था--- यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहाँ से । इस मिटने का अर्थ वहाँ की राष्ट्रीयता एवं विरासत के मिटने से ही था । इसी का अनुसरण करते हुये ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुस्तान को भी बीसवीं शताब्दी का नया यूनान बनाना चाहते थे । उस समय की कांग्रेस में उन्होंने ऐसे अनेक समर्थक पैदा कर लिये थे जो भारतीयता को इस देश की प्रगति में बाधा मानकर , उसे उखाड़ फेंककर , यूनान की तर्ज़ पर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । कांग्रेस में पंडित नेहरु इसके सरगना हुये । कम्युनिस्ट भी इसी अवधारणा से सहमत थे , इसलिये इस मंच पर बैठने वाले वे स्वाभाविक साथी बने । इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा तैयार किये गये इस वैचारिक अनुष्ठान में कांग्रेस और कम्युनिस्ट स्वाभाविक साथी बने । ज़ाहिर है भारत में भारतीयता विरोधी यह वैचारिक अनुष्ठान ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों ने तैयार किया था , इसलिये इसकी सफलता के लिये वे 1947 से ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से दूर व नज़दीक़ से इसकी सहायता करते रहे । कहना न होगा , जहाँ तक सांस्कृतिक व इतिहास के फ़्रंट की लड़ाई का प्रश्न है , भारत में कम्युनिस्ट इच्छा से या अनिच्छा से ब्रिटिश -अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों का मोहरा बन गये । भारतीय राजनीति का पिछले तीस साल का कालखंड तो इस मोर्चा के लिये अत्यंत लाभकारी रहा और वे भारतीयता के विरोध को ही भारत की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने में कामयाब हो गये । इसका कारण केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति का वर्चस्व स्थापित हो जाना था । भारतीयता विरोधी विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिये यह समय सबसे अनुकूल रहा ।
लेकिन २०१४ में भारतीयों ने तीस साल के बाद लोकतांत्रिक पद्धति से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के इस संयुक्त मोर्चा को ध्वस्त कर दिया । पहली बार लोक सभा में किसी एक राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । कम्युनिस्टों के लिये सबसे कष्टकारी बात यह थी कि यह बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला । जिन राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध को कम्युनिस्टों ने अपने अस्तित्व का आधार ही बना रखा था , उन्हीं राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन में भारत के लोग एकजुट होकर खड़े हो गये । कम्युनिस्टों की आश्रयस्थलियां नष्ट होने के कगार पर आ गईं । इतने साल से जिस स्वप्न लोक में रहते रहे और उसी को धीरे धीरे यथार्थ मानने लगे थे , उसे भारत की जनता ने एक झटके में झटक दिया । भारतीय मानस को समझ लेने का उनका दावा ख़ारिज हो गया । दरबार उजड़ गया । भारत के इतिहास और संस्कृति की साम्राज्यवादी व्याख्या पर ख़ुश होकर राजा सोने की अशर्फ़ी इनाम में देता था , वह राजपाट लद गया । लगता है दरबार के उजड़ जाने पर , उसके आश्रितों की फ़ौज विलाप करती हुई राजमार्ग पर निकल आई हो । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की यह फ़ौज अब अंतिम लड़ाई के लिये मैदान में निकली है । इतिहास इस बात का गवाह है कि वे लोकतंत्र में भी अपनी लड़ाई लोकतांत्रिक तरीक़ों से नहीं लड़ते । पहली रक्षा पंक्ति में उनका विश्वास ही नहीं है । लोकतंत्र में वही रक्षापंक्ति लोकतांत्रिक होती है क्योंकि इसी में लोग अपने मत का प्रयोग करते हुये अपना निर्णय देते हैं । कम्युनिस्ट जानते हैं कि इस रक्षा पंक्ति पर उनकी हार निश्चित है इसलिये दबाव बनाने के लिये वे दूसरी तीसरी रक्षा पद्धति का निर्माण बहुत मेहनत से करते हैं । लेकिन ये रक्षा पंक्तियाँ शुद्ध रुप से ग़ैर लोकतांत्रिक तरीक़ों से गठित होती हैं । जिस प्रकार आतंकवादी अपनी लड़ाई में बच्चों को , स्त्रियों को चारे के रुप में इस्तेमाल करते हैं , उसी प्रकार कम्युनिस्ट अपनी लड़ाई में कलाकारों , लेखकों , साहित्यकारों , चित्रकारों , इतिहासकारों का प्रयोग हथियार के रुप में करते हैं । लेकिन इस काम के लिये वे सचमुच साहित्यकारों , कलाकारों या इतिहासकारों का प्रयोग करते हों , ऐसा जरुरी नहीं है । क्योंकि कोई भी साहित्यकार या इतिहासकार आख़िर कम्युनिस्टों की इस ग़ैर लोकतांत्रिक लड़ाई में हथियार क्यों बनना चाहेगा ? इसलिये कम्युनिस्ट अत्यन्त परिश्रम से अपने कैडर को ही साहित्यकार, इतिहासकार, और सिनेमाकार के तौर पर प्रोजैक्ट करते रहते हैं , ताकि इस प्रकार के संकटकाल में उनका प्रयोग किया जा सके । भारत में कम्युनिस्टों को इस काम में सत्तारुढ कांग्रेस से बहुत सहायता मिली । अपने लोगों को विभिन्न सरकारी इदारों से समय समय पर पुरस्कार दिलवा कर उनका रुतबा बढ़ाया गया । पिछले साठ साल से कम्युनिस्ट भारत में यही काम कर रहे थे । इसलिये उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त या फिर जिनका रुतबा बढ़ गया हो , ऐसे लोगों की एक छोटी मोटी फ़ौज तैयार हो गई है ।
अब कांग्रेस के परास्त होने के कारण कम्युनिस्ट भी एक प्रकार से अनाथ हो गये हैं । बहुत मेहनत से तैयार की गई चरागाहों से बाहर होने की संभावना बिल्कुल सामने आ गई है । राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय परिप्रेक्ष्य में मज़बूत हो रही हैं । कम्युनिस्टों के लिये अपने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है । इसलिये उन्होंने रिज़र्व में रखी अपनी फ़ौज मैदान में उतार दी है । सबसे पहले उन साहित्यकारों की बटालियन मैदान में उतारी गई जिन्हें लम्बे अरसे से पुरस्कार खिला खिला कर पाला पोसा गया था । उन्होंने अपने इनाम इकराम लौटाने शुरु किये । बैसे तो अनेक लोगों के बारे में भारत की जनता को भी पहली बार ही पता चला कि वे भी साहित्यकार हैं । इनमें से कुछ साहित्यकार तो ऐसे हैं जिनके 'अमर साहित्य' की चर्चा केवल 'आई ए एस सर्किल' में ही होती है । अनेक साहित्यकार अपने लिखें को अपने परिवार वालों को सुना कर ही संतोष प्राप्त करते हैं । शेष पार्टी के कैडर में गा गाकर तालियाँ बटोरते हैं । रही बात पुरस्कारों की , तो अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों को ' की कहावत का अर्थ हिन्दी वालों को इनको पुरस्कार मिलते देख कर ही समझ में आया । कम्युनिस्टों को भ्रम था कि इससे देश में कोहराम मच जायेगा । लेकिन ऐसा न होना था और न ही हुआ । कोहराम उनसे मचता है जिनका देश की जनता पर कोई प्रभाव हो । कुछ दिन अख़बारों में हाय तौबा तो मचती रही , इलैक्ट्रोंनिक चैनलों पर बहस भी चलती रही । लेकिन कम्युनिस्ट भी समझ गये थे कि यह पटाखा आवाज़ चाहे जितनी कर ले , ज़मीन पर इस का प्रभाव नगण्य ही होगा ।
इसलिये कुछ दिन पहले मैदान में दूसरी बटालियन उतारी गई । यह बटालियन उन लोगों की थी जो फ़िल्में बगैरह बनाते हैं । कई लोगों की फ़िल्में तो जनता देखती भी हैं , लेकिन इनमें से कई निर्माता ऐसे भी हैं जिनको अपनी फ़िल्मों के लिये दर्शक भी स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं । पर क्योंकि ऐसे निर्माता विदेशों से कुछ इनाम आदि बटोर ही लेते हैं इसलिये सजायाफ्ता की तरह इनामयाफ्ता तो कहला ही सकते हैं । वैसे कम्युनिस्टों की रणनीति में अच्छा फ़िल्म निर्माता वही होता है जिसकी फ़िल्म से आम जनता दूर रहती है । रामानन्द सागर कम्युनिस्टों की दृष्टि में अच्छे और प्रतिनिधि निर्माता नहीं थे क्योंकि उनके धारावाहिक रामायण को देखने के लिये इस देश की जनता अपना सारा काम काज छोड़ देती थी । साहित्यकारों के मोर्चे पर फ़ेल हो जाने के बाद इन फ़िल्म निर्माताओं ने रणभूमि में शक्तिमान की तरह मुट्ठियाँ तानते हुये प्रवेश किया । उनको लगता होगा कि उनको देखते ही देश की जनता उनके साथ ही मुट्ठियाँ भींचते हुये सड़कों पर निकल आयेगी लेकिन हँसी ठिठोली के अलावा इस अभियान में से कुछ नहीं निकला । कुछ दिन उन्होंने भी अपने इनाम बारह वापिस करने में लगाये । उसका हश्र भी वही हुआ जो मेहनत से पाले पोसे तथाकथित साहित्यकारों का हुआ था ।
अब उतरी है ढोल नगाड़े बजाते हुये अंतिम वाहिनी । यह वाहिनी स्कूलों , कालिजों व विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके उन अध्यापकों की है जो इतिहास पढ़ाते रहे हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके इरफ़ान हबीब इस सेना के आगे आगे झंडा लहराते हुये चल रहे हैं । उनके साथ रोमिला थापर तो है हीं । के एम पणिक्कर और मृदुला मुखर्जी दायें बायें चल रहे हैं । उनका कहना है कि देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है लेकिन नरेन्द्र मोदी चुप हैं , बोलते नहीं । उनको बोलना चाहिये । इरफ़ान हबीब यह नहीं बताते कि यह साम्प्रदायिकता कौन फैला रहे हैं । इरफ़ान भाई अच्छी तरह जानते हैं कि यह साम्प्रदायिकता उन्हीं की सेना के लोग फैला रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सहायता से खड़ी की गई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इसकी शुरुआत हुई थी । इरफ़ान भाई अलीगढ़ विश्वविद्यालय का इतिहास तो जानते ही होंगे ? देश को बाँटने , विभिन्न फ़िरक़ों को आपस में लड़ाने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का कार्य इरफ़ान भाई की यही सेना कर रही है । लेकिन आज हिमाचल प्रदेश के इतिहासकार कहे जाने वाले विपन चन्द्र सूद की बहुत याद आ रही है । कुछ साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गये । नहीं तो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के साथ मिल कर वही त्रिमूर्ति का निर्माण करते थे । आज होते तो इनके साथ चलते हुये अच्छे लगते । नाचते गाते हुये साम्यवादी खेमे में इतिहासकार कहे जाने वाले ये लोग भी निकल जायेंगे । कुछ देर तक जनता का मनोरंजन होता रहेगा । लेकिन इससे भारत की राष्ट्रवादी शक्तियाँ और भी मज़बूत होकर निकलेंगी क्योंकि उनके पीछे देश की जनता है ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment