Friday, February 20, 2015
दिल्ली की पराजय से आगे भाजपा की प्रगति यात्रा-
पिछले दिनों दिल्ली विधान सभा के लिये हुये चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की पराजय हुई है । विधान सभा की ७० सीटों में से पार्टी केवल तीन सीटें जीत पाई । शेष सभी सीटें आम आदमी पार्टी ने गटक लीं । सोनिया कांग्रेस को कोई भी सीट मिलने की आशा नहीं थी और उसी के अनुरूप पार्टी ने कोई सीट नहीं जीती । जिन दिनों दिल्ली विधान सभा के लिये चुनाव हो रहे थे , उसके आसपास ही असम प्रदेश में नगर पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव हो रहे थे । कुछ प्रदेशों में कुछ सीटों पर उप चुनाव हो रहे थे । लेकिन दिल्ली के शोर में सब कुछ दब गया । जिस दिन दिल्ली के चुनावों के नतीजे आये मैं उस दिन मणिपुर में था । उन्हीं दिनों असम के स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजे भी आ रहे थे । लेकिन तथाकथित इलैक्ट्रोंनिक मीडिया दिल्ली शहर को ही पूरा भारत मान लेता है और उससे बाहर देखने को अपनी चौहान समझता है । इम्फ़ाल में कई प्रबुद्ध लोगों ने कहा दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया के लिये असम के चुनावों की कोई अहमियत ही नहीं है । दिल्ली शहर देश की राजधानी है इसमें कोई शक नहीं । वहाँ के चुनाव परिणामों का ज़िक्र जरुरी है , इसमें भी कोई शक नहीं । लेकिन मीडिया को कहीं न कहीं संतुलन तो बनाना ही चाहिये ।
लेकिन संतुलन न मीडिया अपनी कवरेज में बना पाया और न दिल्ली के मतदाता अपने निर्णय में । अब जब भाजपा वहाँ हार गई है , तो हर व्यक्ति , मैंने कहा था , कि मुद्रा में उतर आया है । मैंने कहा था और उन्होंने सुना नहीं , की तर्ज़ पर पार्टी के भीतर विश्लेषण हो रहे हैं । बाहर के विश्लेषण का स्वर दूसरा है । मोदी की लहर उतर गई है । अब यदि सोनिया कांग्रेस से लेकर जदयू तक बरास्ता लालू यादव /ममता बनर्जी एक जुट हो जायें तो खोया हुआ सिंहासन वापिस पाया जा सकता है । किरण बेदी को लेकर , जो प्रयोग भारतीय जनता पार्टी ने किया , उसको लेकर पार्टी के भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार के आलोचक सहमत हैं कि उस प्रयोग के कारण नुक़सान ही नहीं हुआ , पार्टी का आम कार्यकर्ता आहत भी हुआ । लेकिन जो पार्टियाँ , अली बाबा चालीस चोर की तर्ज़ पर , भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ एकजुट होकर सिंहासन के लिये संघर्ष करने के मनसूबे दिल्ली के चुनाव परिणामों को लेकर बना रहीं थीं उनके रास्ते में असम और अन्य प्रदेशों के यंत्र तत्र उपचुनावों के परिणाम बाधा पहुँचा रहे हैं ।
असम में 74 नगरपालिकाओं/नगर पंचायतों के लिये चुनाव उन्हीं दिनों हुये थे जब दिल्ली में चुनाव हो रहे थे । सोनिया कांग्रेस इनमें से कुल मिला कर १७ पर अपना बहुमत प्राप्त कर सकी । भारतीय जनता पार्टी ने ३९ नगर पालिकाओं में विजय प्राप्त की । असम गण परिषद केवल दो में ही जीत हासिल कर सकी । ध्यान रखना होगा कि अभी तक सोनिया कांग्रेस के पास इन ७४ नगरपालिकाओं में से ७१ पर क़ब्ज़ा था । जिन नगरपालिकाओं/नगर पंचायतों के लिये चुनाव हुये , उनमें कुल मिला कर ७४६ बार्ड या सीटें हैं । भारतीय जनता पार्टी ने इनमें से आधी से भी ज़्यादा सीटें जीतीं । सोनिया कांग्रेस केवल २३० सीटें जीत सकीं । बंगलादेशियों की पार्टी ए.आई.यू.डी.फ केवल आठ सीटें जीत पाईं । सी पी एम को केवल एक सीट मिली । सबसे बड़ी बात तो यह कि भाजपा ने प्रदेश के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के अपने नगर जोरहाट की नगरपालिका पर भी क़ब्ज़ा जमा लिया । सोनिया कांग्रेस के लिये चिन्ता की बात तो यह है कि प्रदेश में इसी साल विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं ।
पूर्वोत्तर भारत में असम के बाद जिस प्रदेश में भाजपा महत्वपूर्ण राजनैतिक दल की हैसियत में आ गई है , वह अरुणाचल प्रदेश है । साठ सदस्यीय विधान सभा में सोनिया कांग्रेस के ४७ और भाजपा के ११ सदस्य हैं । दो सदस्य निर्दलीय हैं । वहाँ के मुख्यमंत्री नवम टुकी सोनिया गान्धी के खासुलखास हैं । उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद अरुणाचल प्रदेश में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों में हैरानी पैदा करने वाली तेज़ी देखी गई है । सोनिया कांग्रेस के ख़िलाफ़ प्रदेश की अनेक जनजातियों में असंतोष बढ़ रहा है । पिछले दिनों प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जारबोम के देहान्त के बाद विधान सभा की लिरोम्बा सीट के लिये दिल्ली चुनाव के कुछ दिन बाद ही उपचुनाव हुआ । सीट सोनिया कांग्रेस व मुख्यमंत्री के लिये प्रतिष्ठा की सीट बन गई । यह ठीक है कि सोनिया कांग्रेस ने यह सीट जीत ली और भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी बाई गादी हार गया । लेकिन दोनों पार्टियों को प्राप्त मतों का अन्तर केवल ११९ था । राजनैतिक हलकों में व्यवहारिक तौर पर इसे मुख्यमंत्री की हार ही माना जा रहा है । ज़ाहिर है असम और अरुणाचल प्रदेश में भाजपा सोनिया कांग्रेस को पछाड़ने की स्थिति में आ रही है । ये दोनों ऐसे राज्य हैं , जिनमें आज से कुछ साल पहले जनसंघ/भाजपा बेगानी मानी जाती थी । इसके बाद पश्चिमी बंगाल में , बनगांव में लोकसभा और किशनगंज में विधान सभा के लिये हुये उपचुनाव की चर्चा करेंगे । पश्चिमी बंगाल में लम्बे अरसे तक सी.पी.एम और सोनिया कांग्रेस मुख्य राजनैतिक दलों के रुप में स्थापित रहीं । इसके बाद मुख्य मुक़ाबला सी.पी.एम और ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में होने लगा । लेकिन पिछले कुछ समय से पश्चिमी बंगाल का परिदृष्य बदला है । अब वहाँ मुख्य मुक़ाबला तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में होने लगा है । ऊपर जिन उपचुनावों का ज़िक्र किया गया है , उनके परिणाम इसी दिशा की ओर संकेत करते हैं । बनगांव लोकसभा चुनाव में जीत चाहे तृणमूल कांग्रेस की हुई लेकिन सोनिया कांग्रेस चौथे नम्बर पर खिसक गई और उसे केवल २९ हज़ार वोटें मिलीं । दूसरे नम्बर पर सी पी एम रही , लेकिन सी पी एम और भाजपा को प्राप्त वोटों का अन्तर केवल दस हज़ार के आसपास रहा । इसी तरह किशनगंज विधानसभा के लिये सोनिया कांग्रेस को केवल पाँच हज़ार के आसपास वोट मिले । भाजपा दूसरे नम्बर पर रही और सी पी एम तीसरे स्थान पर रही । तृणमूल कांग्रेस ने स्वयं माना की उसकी जीत के बाबजूद , भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में दूसरे स्थान पर आ रही है । यद्यपि उसे यह स्वीकार करने में खिसियाहट हो रही थी । जब ममता पत्रकारों को तृणमूल की जीत पर बधाइयाँ दे रही थीं तो किसी पत्रकार ने पूछा , दूसरे नम्बर वालों के बारे में क्या कहना है ? तो वे ग़ुस्से में बोलीं, दूसरे तीसरे की बात मत करो । सोनिया कांग्रेस को इन दोनों सीटों पर तीन प्रतिशत से भी कम वोट मिले और दोनों स्थानों पर उसकी ज़मानत ज़ब्त हो गई । २०१४ के लोकसभा चुनावों में पश्चिमी बंगाल में भाजपा को १७ प्रतिशत से भी ज़्यादा वोट मिले थे और वह प्राप्त मतों के लिहाज़ से तृणमूल कांग्रेस और सी पी एम के बाद तीसरे नम्बर पर आ गई थी । सोनिया कांग्रेस का स्थान चौथे नम्बर पर था । उसके बाद से राज्य में चार उपचुनाव हुये , जिनमें से एक तो भाजपा ने जीत ही लिया और प्राप्त मतों के हिसाब से पार्टी राज्य में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ रही है ।
यह स्पष्ट है कि दिल्ली के चुनाव परिणामों के बाबजूद भारतीय जनता पार्टी उन प्रदेशों में भी मुख्य राजनैतिक दल के तौर पर उभर रही हैं , जहाँ कुछ साल पहले उसके आधार अति सीमित था । पर दिल्ली के शोर शराबे में भाजपा की यह प्रगति यात्रा उभर नहीं पाई । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की भाजपा को दिल्ली के चुनावों का विश्लेषण नहीं करना चाहिये । लेकिन पार्टी के भीतर से ऐसे विश्लेषणों में नीर क्षीर विवेचन कितना कठिन होता है , यह बताने की जरुरत नहीं । यह अपना आप्रेशन बिना किसी एनथीसिया के स्वयं करने के बराबर होता है । क्या भाजपा यह कर पायेगी ?
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