Monday, December 21, 2015

RSS-Vagish Issar: गीता में विश्व शांति और विश्व को एक मंच पर लाने की...

RSS-Vagish Issar: गीता में विश्व शांति और विश्व को एक मंच पर लाने की...: गीता में विश्व शांति और विश्व को एक मंच पर लाने की ताकत विद्यमान – सुरेश भय्या जी जोशी कुरुक्षेत्र (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक...

RSS-Vagish Issar: संगठन में धन से अधिक महत्व महापुरुषों के जीवन का अ...

RSS-Vagish Issar: संगठन में धन से अधिक महत्व महापुरुषों के जीवन का अ...: संगठन में धन से अधिक महत्व महापुरुषों के जीवन का अनुसरण है : सरसंघचालक जी नई दिल्ली, 19 दिसम्बर 2015, (इंविसंके) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक...
संगठन में धन से अधिक महत्व महापुरुषों के जीवन का अनुसरण है : सरसंघचालक जी नई दिल्ली, 19 दिसम्बर 2015, (इंविसंके) । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ने संघ के ज्येष्ठ प्रचारक सरदार चिरंजीव सिंह जी का अभिनंदन करते हुए कहा कि दीपक की तरह संघ के प्रचारक दूसरों के लिए जल कर राह दिखाते हैं। सम्मान आदि से प्रचारक दूर रहना ही पसंद करते हैं। संघ में व्यक्ति के सम्मान की परंपरा नहीं है, किंतु संगठन के लाभ के लिए न चाहते हुए भी सम्मान अर्जित करना पड़ता है। सरसंघचालक जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं वर्तमान में राष्ट्रीय सिख संगत के मुख्य संरक्षक सरदार चिरंजीव सिंह जी के 85 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर नई दिल्ली स्थित मावलंकर सभागार में आयोजित सत्कार समारोह में बड़ी संख्या में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आये सिख संगत के कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे थे। सरसंघचालक जी ने बताया कि जीवन का आदर्श अपने जीवन से खड़ा करना यह सतत तपस्या संघ के प्रचारक करते हैं। इसके लिए वह स्वयं को ठीक रखने की कोशिश जीवन पर्यन्त करते है। महापुरुषों के जीवन का अनुसरण करते रहने वाले साथी मिलते रहें यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। धन से ज्यादा, संगठन का फायदा इसमें है कि जो रास्ता संगठन दिखाता है उस रास्ते पर चलने की हिम्मत समाज में बने। उन्होंने बताया कि संघ में प्रचारक निकाले नहीं जाते वह अपने मन से बनते हैं। जिसको परपीड़ा नहीं मालूम होती वह कैसे पुरुष हो सकता है। मनुष्य को मनुष्य होने का साहस करना होता है, संघ स्वयंसेवको को ऐसा वातावरण देता है। सरदार चिरंजीव सिंह जी के जीवन से ऐसा उदाहरण देख लिया है। अब हम लोगों के ऊपर है कि हम कैसे उनके जीवन के अनुसार चल सकते हैं। अपनी शक्ति बढ़ाते चलो अपना संगठन मजबूत करते चलो, सरदार चिरंजीव सिंह जी ने ऐसा कर के दिखाया। अगर यह परंपरा आगे चलाने की कोशिश हम सभी करें तो किसी भी धन प्राप्ति से ज्यादा ख़ुशी उनको होगी। राष्ट्रीय सिख संगत के संरक्षक सरदार चिरंजीव सिंह जी ने बताया कि संघ में प्रचारक बनने के लिए किसी घटना की आवश्यकता नहीं होती, जैसे परिवार का काम करते हो वैसे समाज का काम करो। सहज और स्वभाविक रूप से आप समाज के लिए काम करो। उन्होने डॉ। हेडगेवार जी का संदर्भ दिया कि उन्होंने केवल 5 बच्चों को साथ लेकर संघ की स्थापना की। यही एक घटना हो सकती है हम सभी के संघ में आने के लिए। संघ का काम यही है कि देश के प्रति एक आग उत्पन्न कर देना, अब उस व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह प्रचारक जीवन अपनाता है या फिर अन्य मार्ग से देश की सेवा करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एकमात्र संगठन है जिसमे व्यक्ति सिर्फ देने ही आता है, अपने लिए कुछ नहीं मांगता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सिख गुरुओं का हृदय से बहुत आदर करता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने जिन लोगों के लिए सब कुछ किया जब उन लोगों ने कुछ नहीं किया तो उन्होंने उनके लिए कुछ बुरा नहीं कहा। आज हम अपनी कमजोरियों की जिम्मेदारी दूसरों पर डालना चाहते हैं, भारतवर्ष के पतन का यह बहुत बड़ा कारण है, क्योंकि हम दूसरों को ही बुरा ठहराने की कोशिश करते हैं। उन्होंने गुरुवाणी के आधार पर सारे समाज को जागृत करने को कहा कि सिख धर्म वास्तव में क्या है। गुरुओं के उपदेश के अनुसार सिखों से आचरण करने को कहा। सरदार चिरंजीव सिंह जी का सिख संगत के कार्य को आगे बढ़ाने में अभूतपूर्व योगदान है। उन्होंने 1953 में स्नातक शिक्षा पूर्ण कर 62 वर्ष से संघ के प्रचारक के रूप में विभिन्न संगठनों, विहिप, पंजाब कल्याण फोरम, संघ के विभिन्न दायित्व व राष्ट्रीय सिख संगत के 12 वर्ष तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहकर और वर्तमान में मुख्य संरक्षक, ने अपना सम्पूर्ण जीवन माँ भारती को समर्पित किया हुआ है। प्रचारक जीवन की इस समाज व राष्ट्र के लिए आज भी पूर्ण प्रसांगिकता है तथा प्रचारक जीवन अपने आप में एक पूर्ण जीवन, साध्ना एवं दर्शन है। वर्तमान युवकों, विशेषकर सिख युवकों ने प्रचारक जीवन के प्रति रूझान बढ़े व आम समाज में प्रचारक की महत्वता बढे़, इसमें उनके प्रयास से आशातीत परिणाम सामने आए हैं। राष्ट्रीय सिख संगत के राष्ट्रीय अध्यक्ष सरदार गुरचरन सिंह गिल जी द्वारा कार्यक्रम का भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा कि सरदार चिरंजीव सिंह का जन्म माता जोगेन्दर कौर व पिता सरदार हरकरण सिंह के गृह शहर पटियाला में अश्विन शुक्ल नवमी, वि।सं। 1987 ई। तद्नुसार 1 अक्टूबर 1930 को हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा सनातन धर्म इंग्लिश हाई स्कूल पटियाला में हुई। वे सातवीं कक्षा से संघ के सम्पर्क में आये तथा तब से सदा के लिए संघ के होकर रह गये। 1948 में मैट्रिक करने के बाद उन्होंने अंग्रेजी, राजनीति शास्त्र व दर्शनशास्त्र से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसी बीच जब संघ पर प्रतिबंध लगा तो वे सत्याग्रह कर जेल गए। परिवार के स्वप्न थे कि चिरंजीव सिंह जी किसी बड़ी नौकरी में जा कर धन व यश कमायें, पर संघ शाखा से मिले संस्कार उन्हें अपना जीवन, अपनी पवित्र मातृभूमि व देश पर बलिदान करने की ओर ले जा रहे थे। वह 14 जून 1953 को आजीवन देश सेवा के लिए संघ के प्रचारक हो गए। वह विभिन्न जिलों के प्रचारक, बाद में लुधियाना के विभाग प्रचारक व पंजाब के सह-प्रचारक रहे। आपात्काल में लोकशाही की पुनः प्रस्थापना के जनसंघर्ष में सक्रिय रहे। भूमिगत रहकर सैंकड़ों बंधुओं को संघर्ष में सहभागी होने की प्रेरणा दी। पंजाब में उग्रवाद के दिनों में जब सामाजिक समरसता की बात कहना दुस्साहस ही था, तब इन्होंने पंजाब कल्याण फोरम बनाकर इसके संयोजक का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया। वे जान हथेली पर रखकर सांझीवालता की सोच रखने वाले सिख विद्वानों, गुरुसिख संतों व प्रमुख हस्तियों से निरंतर संवाद बनाये रहे तथा उग्रवाद से पीडि़त परिवारों को संवेदना व सहयोग प्राप्त करवाते रहे। उन्होंने गुरुसिख व सनातन परम्परा के संतो से संवाद बनाकर, समाज में आत्मीयता, प्रेम, सौहार्द व सांझीवालता का सन्देश सब जगह पहुंचाने के लिए “ब्रह्मकुण्ड से अमृतकुंड” नाम से, एक विशाल यात्रा हरिद्वार से अमृतसर तक निकाली जिसमें सारे भारत से लगभग एक हजार संतों की भागीदारी रही। इस यात्रा से लोगों में व्याप्त भय कम हुआ तथा समरसता का वातावरण बना। 70 व 80 के दशक में पंजाब के तनावपूर्ण वातावरण तथा 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दिल्ली, कानपुर, बोकारो इत्यादि में सिखों के नरसंहार के कारण जब भाईचारे की परम्परागत कडियाँ तनाव महसूस करने लगीं तब चिरंजीव सिंह जी ने सिख नेताओं और संतों के साथ मिलकर राष्ट्रीय सिख संगत की स्थापना की। 1990 में वह इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। खालसा सिरजना के 300 वर्ष पूरे होने पर सांझीवालता का सन्देश देने के लिए भारत के विभिन्न मत सम्प्रदायों के संतों से सम्पर्क कर, श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के जन्मस्थल पटना साहिब से राजगीर बोधगया, काशी, अयोध्या से होती हुई 300 संतों की यात्रा निकाली। यह यात्रा 24 मार्च 1999 से शुरु होकर 10 अप्रैल को श्री आनंदपुर साहिब के मुख्य आयोजन, संत समागम, में सम्मिलित हुई। इस यात्रा का हरिमंदिर साहिब, दमदमा साहब, केशगढ़ साहिब जैसे सभी प्रमुख गुरुद्वारों में सम्मान सत्कार हुआ। इस यात्रा से सारे देश में एकात्मता एवं सांझीवालता का वातावरण बना। सरदार जी ने सन् 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित मिलेनियम-2, विश्व धर्म सम्मेलन में भागीदारी की व संगठन के विस्तार के लिए इंग्लैंड व अमेरिका की यात्रा की। इससे पूर्व कार्यक्रम का शुभारम्भ गुरुतेगबहादुर पब्लिक स्कूल मॉडल टाउन दिल्ली के छात्रों द्वारा शबद गायन ‘देहि शिवा वर मोहि इहे’ द्वारा किया गया। इस अवसर पर सरदार चिरंजीव सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक का विमोचन भी किया गया। उनको सम्मान स्वरुप 85 लाख रुपये की राशि प्रदान की गयी जो उन्होंने सिख इतिहास में शोध कार्य के लिए केशव स्मारक समिति को धरोहर स्वरूप सौंपी। जो बाद में भाई मनि सिंह गुरुमत शोध एंड अध्ययन संस्थान ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दी गयी। इस अवसर पर संत बाबा निर्मल सिंह जी (बुड्ढा बाबा के वंशज), उत्तर क्षेत्र संघचालक डॉ. बजरंग लाल गुप्त, दिल्ली प्रान्त संघचालक भी उनके साथ मंचस्थ थे। मंच सञ्चालन दिल्ली प्रान्त सह संघचालक आलोक जी ने किया।"
गीता में विश्व शांति और विश्व को एक मंच पर लाने की ताकत विद्यमान – सुरेश भय्या जी जोशी कुरुक्षेत्र (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश भय्या जी जोशी ने कहा कि गीता में प्रारंभ का शब्द धर्म है और अंतिम शब्द मर्म है. हम सब एक ही चैतन्य से निकले हैं, तो फिर संघर्ष क्यों ? गीता के इसी तत्व के आधार में विश्व को एक मंच पर लाने की ताकत है, जो विश्व में शांति का आधार बनेगा. श्रीमद्भगवत गीता के तत्व को समझने वालों की संख्या पर्याप्त है, परंतु उसका अनुसरण करने वालों की संख्या बढ़ानी होगी. अतः गीता को आत्मसात करना ही जीवन है. उन्होंने कहा कि महाभारत का युद्ध धर्म और अधर्म इन दो शक्तियों के बीच का संघर्ष था. इसी युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना दायित्व बोध करवाने का काम किया है. आज पूरी दुनिया अर्जुन रूपी विशाद रोग से ग्रस्त है और उस रोग से मुक्ति का रास्ता कृष्ण उपचार यानि श्रीमद्भागवत गीता है. आज जिस तरह से दुनिया में निराशा व विषाद का माहौल है, ऐसे में श्रीमदभागवत गीता के तत्व ज्ञान की आवश्यकता है. गीता में मनुष्य के मन बुधि में से निराशा निकालने का सामर्थ्य है. श्रीमद्भागवतगीता विश्व का मार्गदर्शन करने वाला ग्रंथ है. भारत दुनिया में एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाए, इसके लिए गीता को प्रत्येक व्यक्ति को अपने आचरण में अपनाना जरूरी है. श्रीमद्भागवत गीता हमें प्रेरणा देती है. एक आदर्श व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती है. आत्मज्ञान पैदा करती है और एक दूसरे से जुड़़ना सिखाती है. इस सद्भाव व समरसता से ही हम दुनिया को सही दिशा में चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं और विश्व को एक मंच पर ला सकते है. सरकार्यवाह कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में गीता जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे. उन्होंने कहा कि गीता प्रत्येक व्यक्ति को यह याद दिलाती है कि हमारा देश, समाज व राष्ट्र के प्रति धर्म क्या है. गीता कोई धार्मिक व पौराणिक ग्रंथ न होकर सार्वभौमिक, सर्वकालिक व सार्वत्रिक ग्रंथ है. दुनिया में शान्ति के प्रयासों के लिए मानव समूह को गीता के मार्ग पर चलना पड़ेगा. हमें अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अहंकार व अपेक्षाओं से मुक्त होना होगा. अहंकार व अपेक्षाएं ही सभी समस्याओं की जड़ हैं. श्रीमद्भागवत गीता मानसिक विकृतियों को दूर करता है. भारत के पास क्षमताओं का अपार भंडार है. उन्होंने सभी से आह्वान किया कि वे सभी अपने जीवन में गीता को अपनाएं और उसे अपने आचरण में लाएं. जीवन को जीने का यही सबसे बेहतर तरीका है. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के आडिटोरियम हॉल में शुक्रवार संस्कृत, पालि एवं प्राकृत विभाग तथा संस्कृत एवं प्राच्य विद्या संस्थान की ओर से आयोजित एक दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश व दुनियाभर से आए विद्वानों ने श्रीमद्भागवत गीता के सूत्रों की अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी, उर्दू व फारसी में व्याख्या की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य इन्द्रेश कुमार जी ने कहा कि सम्मान व समरसता का रास्ता श्रीमद्भागवत गीता से निकलता है. गीता सभी प्रकार की चुनौतियों से निकलने का रास्ता दिखाती है. गीता ने दुनिया को आलौकित किया है. यह निर्विवाद, सर्वमान्य व लोक कल्याणकारी महान ग्रंथ है. बीकानेर से आए स्वामी संवित सोमगिरी जी महाराज ने कुरुक्षेत्र की लोक संस्कृति को नमन करते हुए कहा कि श्रीमद्भागवत गीता की सार्वभौम प्रासंगिकता के विषय में हम तभी कुछ समझ सकते हैं, अगर हम एक शिष्य व शिशु का भाव जीवन में रखते हैं. कृष्ण को जानने के लिए व श्रीमद्भागवत गीता को समझने के लिए शास्त्र के प्रति श्रद्धा होना जरूरी है. गीता वेदों का सार है. गीता को समझने से पहले व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि उसकी भगवान के प्रति धारणा क्या है. गीता में जीवन का व्यवहारिक दर्शन है. श्रीमद्भागवत गीता ब्रह्म विद्या, योग विद्या व शास्त्र विद्या है. जीवन को समझने के लिए श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन जरूरी है. जीवन में कर्मयोग का संदेश सबसे महत्वपूर्ण है. कर्मयोग के लिए श्रीमद्भागवत गीता को आचरण में लाना जरूरी है. राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली के मोहम्मद हनीफ खान शास्त्री ने कहा कि गीता से मेरा 40 वर्ष पुराना सम्बंध है. दुनिया में सभी को गीता पढ़नी चाहिए. इस्लाम को समझने के लिए भी गीता का अध्ययन जरूरी है. इस्लाम का अर्थ समर्पण व शान्ति है और इसका पूरा सार श्रीमद्भागवत गीता में है. दुनिया से आतंकवाद व उग्रवाद को खत्म करने के लिए श्रीमद्भागवत गीता को जीवन में अपनाने की जरूरत है. संत आचार्य विवेकमुनि ने कहा कि गीता का ज्ञान 5151 वर्ष पूर्व जितना उपयोगी था, आज वह उससे ज्यादा प्रासंगिक व उपयोगी है. आज हर व्यक्ति का जीवन कुरुक्षेत्र बना हुआ है. जीवन में हताशा, निराशा व उदासी है. गीता विशाद से मुक्ति का रास्ता है. गीता हमें सर्वश्रेष्ठता की ओर ले जाती है. जीवन में कौशल को हासिल कर, आत्मजागृति पैदा कर ही हम खुद व समाज का कल्याण कर सकते हैं. भूपेन्द्र सिंह महाराज ने कहा कि आज गीता का महत्व व उपयोगिता पहले से अधिक दिखाई पड़ रहा है. अब दुर्याधन व दुःशासनों की संख्या ज्यादा है. ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता को अपनाकर हम जीवन मूल्यों को ओर मजबूत बना सकते हैं. आज दुनिया में परमाणु हथियारों की होड़ है जो मानव के लिए खतरा है. इन सभी समस्याओं का हल श्रीमद्भागवत गीता में है. संगोष्ठी में राष्ट्रीय कवि गजेन्द्र सिंह चौहान ने बना लो गीता जीवन गीत व गंगा की कल-कल सीने में गाकर पूरे माहौल को गीतामय कर दिया. इस संगोष्ठी के निदेशक प्रो. ललित कुमार गौड़, संयोजक डॉ. सुरेन्द्र मोहन मिश्र ने बताया कि संगोष्ठी के तहत सायंकालीन सत्र में श्रीगीता विचार तत्व सत्र व श्रीगीता पंडित परिषद का आयोजन किया गया, जिसमें देशभर से गीता मनीषियों ने भाग लिया.

Tuesday, November 17, 2015

माननीय अशोक जी सिंघल का मेदांता अस्पताल गुड़गांव में निधन: सम्पूर्ण जीवन हिन्दू धर्म के लिए खपा देने वाले महान देश भक्त काे नमन, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.....

Wednesday, November 4, 2015

Condolence message of Shri Datta Hosabale, Sah Karyavah, RSS:Nov, 4, 2015 I'm saddened to read the very shocking news of the demise of Shri Narain Kataria ji this early morning. My deep condolences to his family. Narain Kataria ji's death is an irreparable loss to the entire Hindu world. Narain Kataria ji was a relentless crusader for the cause of anything that was related to Hindu interest. A survivor of the holocost of the Partition of Bharat, he had made the democratic fight for Hindus his life mission. Though old by age, he was young in his thoughts, spirits and action that would shame even youngsters. He, being a warrior for Dharma, founded, along with his friends and associates, a few fora to carry on various public activities which have become dependable supporters and shelters in US for Hindus world over. He was a very kind, affable and lovable human being. He practiced the message of Bhagavad Geeta in life in every aspect. He was a jnan yoddha, a karmayogi and a stitapragna. It is nigh impossible to fill the void created by his passing away. The fate has turned the coming Deepavali a dark one. During my visits to USA I had met him on several occasions and also participated in programs organized by him and enjoyed his hospitality. Recently I had a telephonic conversation with him. I, on behalf of Rashtriya Swayamsevak Sangh, and millions of Swayamsevaks, with a heavy heart pay tributes- shraddhanjali- to this great son of Bharatmata and pray the almighty to bestow sadgati on the departed soul. Om Shantih. DATTA HOSABALE Sah Sarkaryavah, RSS

Monday, November 2, 2015

नरेन्द्र मोदी के विरोध की नपुंसक राजनीति-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री जब लड़ाई शुरु होती है तो सेना के विशेषज्ञ प्रथम रक्षा पंक्ति के ध्वस्त हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुये द्वितीय रक्षा पंक्ति और उससे भी आगे तृतीय रक्षा पंक्ति तक की तैयारी करके रखते हैं । उसी की तर्ज़ पर क्म्युनिस्ट पार्टियाँ दुनिया भर में लोकयुद्ध की तैयारी करती हैं । कम्युनिस्टों की इस रणनीति की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि उनके लोक युद्धों में सामान्य आदमी या 'लोक' सदा ग़ायब रहता है । लेकिन साम्यवादियों का दावा रहता है कि लोक मानस को सबसे ज़्यादा वही जानते हैं । यह अलग बात है कि लोक मानस को समझ पाने का उनका दावा इतिहास ने सदा झुठलाया है । भारत विभाजन के समय वे मुस्लिम लीग के साथ थे और पाकिस्तान निर्माण के समर्थक थे । 1942 में अंग्रेज़ो भारत छोड़ो के आन्दोलन के समय वे अंग्रेज़ों के साथ थे और भारतीय मानस को समझने का दावा भी कर रहे थे । 1962 में चीन के आक्रमण में वे चीन के साथ थे और फिर भी भारत के लोगों के मन को समझने का दावा कर रहे थे । 1950 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के सभी समूहों को मिला कर वे लगभग साढ़े पाँच सौ की लोक सभा में वे पचास से ज़्यादा सीटें कभी जीत नहीं सके , फिर भी उनका दावा रहता है कि भारतीय जन के असली प्रतिनिधि वही हैं । कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में वे लोकतांत्रिक पद्धति से कभी जीत नहीं सकते , इसलिये तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति से लेकर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके जम्मू कश्मीर को अलग स्वतंत्र राज्य बनाने के प्रयास करते रहे । लेकिन जन विरोध के कारण वे वहाँ भी असफल ही रहे । तब उन्होंने अपनी रणनीति बदली और कांग्रेस में घुस कर वैचारिक प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करने में लग गये । उसमें उन्होंने अवश्य किसी सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली । कांग्रेस को भी उनकी यह रणनीति अनुकूल लगती थी । इससे कांग्रेस को अपनी तथाकथित प्रगतिशील छवि बनाने में सहायता मिलती रही और कम्युनिस्टों को बौद्धिक जुगाली के लिये सुरक्षित आश्रयस्थली उपलब्ध होती रही । लेकिन इन आश्रयस्थलियों में सुरक्षित बैठकर बौद्धिक जुगाली करते इन तथाकथित साहित्यकारों , रंगकर्मियों , फिल्मनिर्माताओं और इतिहासकारों में एक अजीब हरकत देखने में मिलती है । भारतीय इतिहास, संस्कृति , साहित्य इत्यादि को लेकर जो अवधारणाएँ ,अपने साम्राज्यवादी हितों के पोषण के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचलित की थीं , ये भलेमानुस भी उन्हीं की जुगाली कर रहे हैं , जबकि रिकार्ड के लिये साम्यवादी जनता में यही प्रचारित करते हैं कि उनके जीवन का अंतिम ध्येय ही साम्राज्यवाद की जड़ खोदना है । भारत में यह विरोधाभास आश्चर्यचकित करता है । ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को लेकर जो अवधारणाएं स्थापित कर रहे थे , वे भारतीयता के विरोध में थीं । उनका ध्येय भारत में से भारतीयता को समाप्त कर एक नये भारत का निर्माण करना था , जिस प्रकार चर्च ने यूनान में यूनानी राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये यूनान का निर्माण कर दिया और इस्लाम ने मिश्र में वहाँ की राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये वर्तमान मिश्र का निर्माण कर दिया । इसी को देख कर डा० इक़बाल ने कभी कहा था--- यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहाँ से । इस मिटने का अर्थ वहाँ की राष्ट्रीयता एवं विरासत के मिटने से ही था । इसी का अनुसरण करते हुये ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुस्तान को भी बीसवीं शताब्दी का नया यूनान बनाना चाहते थे । उस समय की कांग्रेस में उन्होंने ऐसे अनेक समर्थक पैदा कर लिये थे जो भारतीयता को इस देश की प्रगति में बाधा मानकर , उसे उखाड़ फेंककर , यूनान की तर्ज़ पर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । कांग्रेस में पंडित नेहरु इसके सरगना हुये । कम्युनिस्ट भी इसी अवधारणा से सहमत थे , इसलिये इस मंच पर बैठने वाले वे स्वाभाविक साथी बने । इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा तैयार किये गये इस वैचारिक अनुष्ठान में कांग्रेस और कम्युनिस्ट स्वाभाविक साथी बने । ज़ाहिर है भारत में भारतीयता विरोधी यह वैचारिक अनुष्ठान ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों ने तैयार किया था , इसलिये इसकी सफलता के लिये वे 1947 से ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से दूर व नज़दीक़ से इसकी सहायता करते रहे । कहना न होगा , जहाँ तक सांस्कृतिक व इतिहास के फ़्रंट की लड़ाई का प्रश्न है , भारत में कम्युनिस्ट इच्छा से या अनिच्छा से ब्रिटिश -अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों का मोहरा बन गये । भारतीय राजनीति का पिछले तीस साल का कालखंड तो इस मोर्चा के लिये अत्यंत लाभकारी रहा और वे भारतीयता के विरोध को ही भारत की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने में कामयाब हो गये । इसका कारण केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति का वर्चस्व स्थापित हो जाना था । भारतीयता विरोधी विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिये यह समय सबसे अनुकूल रहा । लेकिन २०१४ में भारतीयों ने तीस साल के बाद लोकतांत्रिक पद्धति से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के इस संयुक्त मोर्चा को ध्वस्त कर दिया । पहली बार लोक सभा में किसी एक राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । कम्युनिस्टों के लिये सबसे कष्टकारी बात यह थी कि यह बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला । जिन राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध को कम्युनिस्टों ने अपने अस्तित्व का आधार ही बना रखा था , उन्हीं राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन में भारत के लोग एकजुट होकर खड़े हो गये । कम्युनिस्टों की आश्रयस्थलियां नष्ट होने के कगार पर आ गईं । इतने साल से जिस स्वप्न लोक में रहते रहे और उसी को धीरे धीरे यथार्थ मानने लगे थे , उसे भारत की जनता ने एक झटके में झटक दिया । भारतीय मानस को समझ लेने का उनका दावा ख़ारिज हो गया । दरबार उजड़ गया । भारत के इतिहास और संस्कृति की साम्राज्यवादी व्याख्या पर ख़ुश होकर राजा सोने की अशर्फ़ी इनाम में देता था , वह राजपाट लद गया । लगता है दरबार के उजड़ जाने पर , उसके आश्रितों की फ़ौज विलाप करती हुई राजमार्ग पर निकल आई हो । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की यह फ़ौज अब अंतिम लड़ाई के लिये मैदान में निकली है । इतिहास इस बात का गवाह है कि वे लोकतंत्र में भी अपनी लड़ाई लोकतांत्रिक तरीक़ों से नहीं लड़ते । पहली रक्षा पंक्ति में उनका विश्वास ही नहीं है । लोकतंत्र में वही रक्षापंक्ति लोकतांत्रिक होती है क्योंकि इसी में लोग अपने मत का प्रयोग करते हुये अपना निर्णय देते हैं । कम्युनिस्ट जानते हैं कि इस रक्षा पंक्ति पर उनकी हार निश्चित है इसलिये दबाव बनाने के लिये वे दूसरी तीसरी रक्षा पद्धति का निर्माण बहुत मेहनत से करते हैं । लेकिन ये रक्षा पंक्तियाँ शुद्ध रुप से ग़ैर लोकतांत्रिक तरीक़ों से गठित होती हैं । जिस प्रकार आतंकवादी अपनी लड़ाई में बच्चों को , स्त्रियों को चारे के रुप में इस्तेमाल करते हैं , उसी प्रकार कम्युनिस्ट अपनी लड़ाई में कलाकारों , लेखकों , साहित्यकारों , चित्रकारों , इतिहासकारों का प्रयोग हथियार के रुप में करते हैं । लेकिन इस काम के लिये वे सचमुच साहित्यकारों , कलाकारों या इतिहासकारों का प्रयोग करते हों , ऐसा जरुरी नहीं है । क्योंकि कोई भी साहित्यकार या इतिहासकार आख़िर कम्युनिस्टों की इस ग़ैर लोकतांत्रिक लड़ाई में हथियार क्यों बनना चाहेगा ? इसलिये कम्युनिस्ट अत्यन्त परिश्रम से अपने कैडर को ही साहित्यकार, इतिहासकार, और सिनेमाकार के तौर पर प्रोजैक्ट करते रहते हैं , ताकि इस प्रकार के संकटकाल में उनका प्रयोग किया जा सके । भारत में कम्युनिस्टों को इस काम में सत्तारुढ कांग्रेस से बहुत सहायता मिली । अपने लोगों को विभिन्न सरकारी इदारों से समय समय पर पुरस्कार दिलवा कर उनका रुतबा बढ़ाया गया । पिछले साठ साल से कम्युनिस्ट भारत में यही काम कर रहे थे । इसलिये उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त या फिर जिनका रुतबा बढ़ गया हो , ऐसे लोगों की एक छोटी मोटी फ़ौज तैयार हो गई है । अब कांग्रेस के परास्त होने के कारण कम्युनिस्ट भी एक प्रकार से अनाथ हो गये हैं । बहुत मेहनत से तैयार की गई चरागाहों से बाहर होने की संभावना बिल्कुल सामने आ गई है । राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय परिप्रेक्ष्य में मज़बूत हो रही हैं । कम्युनिस्टों के लिये अपने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है । इसलिये उन्होंने रिज़र्व में रखी अपनी फ़ौज मैदान में उतार दी है । सबसे पहले उन साहित्यकारों की बटालियन मैदान में उतारी गई जिन्हें लम्बे अरसे से पुरस्कार खिला खिला कर पाला पोसा गया था । उन्होंने अपने इनाम इकराम लौटाने शुरु किये । बैसे तो अनेक लोगों के बारे में भारत की जनता को भी पहली बार ही पता चला कि वे भी साहित्यकार हैं । इनमें से कुछ साहित्यकार तो ऐसे हैं जिनके 'अमर साहित्य' की चर्चा केवल 'आई ए एस सर्किल' में ही होती है । अनेक साहित्यकार अपने लिखें को अपने परिवार वालों को सुना कर ही संतोष प्राप्त करते हैं । शेष पार्टी के कैडर में गा गाकर तालियाँ बटोरते हैं । रही बात पुरस्कारों की , तो अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों को ' की कहावत का अर्थ हिन्दी वालों को इनको पुरस्कार मिलते देख कर ही समझ में आया । कम्युनिस्टों को भ्रम था कि इससे देश में कोहराम मच जायेगा । लेकिन ऐसा न होना था और न ही हुआ । कोहराम उनसे मचता है जिनका देश की जनता पर कोई प्रभाव हो । कुछ दिन अख़बारों में हाय तौबा तो मचती रही , इलैक्ट्रोंनिक चैनलों पर बहस भी चलती रही । लेकिन कम्युनिस्ट भी समझ गये थे कि यह पटाखा आवाज़ चाहे जितनी कर ले , ज़मीन पर इस का प्रभाव नगण्य ही होगा । इसलिये कुछ दिन पहले मैदान में दूसरी बटालियन उतारी गई । यह बटालियन उन लोगों की थी जो फ़िल्में बगैरह बनाते हैं । कई लोगों की फ़िल्में तो जनता देखती भी हैं , लेकिन इनमें से कई निर्माता ऐसे भी हैं जिनको अपनी फ़िल्मों के लिये दर्शक भी स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं । पर क्योंकि ऐसे निर्माता विदेशों से कुछ इनाम आदि बटोर ही लेते हैं इसलिये सजायाफ्ता की तरह इनामयाफ्ता तो कहला ही सकते हैं । वैसे कम्युनिस्टों की रणनीति में अच्छा फ़िल्म निर्माता वही होता है जिसकी फ़िल्म से आम जनता दूर रहती है । रामानन्द सागर कम्युनिस्टों की दृष्टि में अच्छे और प्रतिनिधि निर्माता नहीं थे क्योंकि उनके धारावाहिक रामायण को देखने के लिये इस देश की जनता अपना सारा काम काज छोड़ देती थी । साहित्यकारों के मोर्चे पर फ़ेल हो जाने के बाद इन फ़िल्म निर्माताओं ने रणभूमि में शक्तिमान की तरह मुट्ठियाँ तानते हुये प्रवेश किया । उनको लगता होगा कि उनको देखते ही देश की जनता उनके साथ ही मुट्ठियाँ भींचते हुये सड़कों पर निकल आयेगी लेकिन हँसी ठिठोली के अलावा इस अभियान में से कुछ नहीं निकला । कुछ दिन उन्होंने भी अपने इनाम बारह वापिस करने में लगाये । उसका हश्र भी वही हुआ जो मेहनत से पाले पोसे तथाकथित साहित्यकारों का हुआ था । अब उतरी है ढोल नगाड़े बजाते हुये अंतिम वाहिनी । यह वाहिनी स्कूलों , कालिजों व विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके उन अध्यापकों की है जो इतिहास पढ़ाते रहे हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके इरफ़ान हबीब इस सेना के आगे आगे झंडा लहराते हुये चल रहे हैं । उनके साथ रोमिला थापर तो है हीं । के एम पणिक्कर और मृदुला मुखर्जी दायें बायें चल रहे हैं । उनका कहना है कि देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है लेकिन नरेन्द्र मोदी चुप हैं , बोलते नहीं । उनको बोलना चाहिये । इरफ़ान हबीब यह नहीं बताते कि यह साम्प्रदायिकता कौन फैला रहे हैं । इरफ़ान भाई अच्छी तरह जानते हैं कि यह साम्प्रदायिकता उन्हीं की सेना के लोग फैला रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सहायता से खड़ी की गई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इसकी शुरुआत हुई थी । इरफ़ान भाई अलीगढ़ विश्वविद्यालय का इतिहास तो जानते ही होंगे ? देश को बाँटने , विभिन्न फ़िरक़ों को आपस में लड़ाने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का कार्य इरफ़ान भाई की यही सेना कर रही है । लेकिन आज हिमाचल प्रदेश के इतिहासकार कहे जाने वाले विपन चन्द्र सूद की बहुत याद आ रही है । कुछ साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गये । नहीं तो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के साथ मिल कर वही त्रिमूर्ति का निर्माण करते थे । आज होते तो इनके साथ चलते हुये अच्छे लगते । नाचते गाते हुये साम्यवादी खेमे में इतिहासकार कहे जाने वाले ये लोग भी निकल जायेंगे । कुछ देर तक जनता का मनोरंजन होता रहेगा । लेकिन इससे भारत की राष्ट्रवादी शक्तियाँ और भी मज़बूत होकर निकलेंगी क्योंकि उनके पीछे देश की जनता है ।

Sunday, November 1, 2015

अखिल भारतीय कार्यकारिणी मंडल की बैठक संपन्न 1 अक्टूबर, रांची/नई दिल्ली (इंविसंके)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीन दिवसीय अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक के अंतिम दिन रविवार को सरकार्यवाह मा. सुरेश (भय्याजी जी) जोशी ने बैठक स्थल के समीप बने मिडिया गैलरी में पत्रकार वर्ता को संबोधित किया। सबसे पहले उन्होंने मीडिया को बधाई देते हुए कहा कि सभी ने सकारात्मक समाचार प्रकाशित कर समाज को सही संदेश दिया है। उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि संघ का 90 वर्षों के सामाजिक जीवन का अनुभव है। संघ के कार्यों को सकारात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है। पिछले कुछ दिनों में देश की कुछ शक्तियों द्वारा हिन्दू समाज को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। सबके प्रति सम्मान की भावना रखने वाले संघ पर गलत आरोप लग रहे हैं जो निंदनीय है। इसके बाद उन्होंने कहा कि संघ की वर्ष में दो प्रमुख बैठकें होती है जिसमें हम संघ के कार्यों की समीक्षा करते है। एक बैठक मार्च में प्रतिनिधि सभा की होती है और दूसरी बैठक अक्टूबर-नवम्बर के बीच कार्यकारी मंडल की होती है। इस बार हुई कार्यकारी मंडल की बैठक में हमलोगों ने संघ कार्यों की समीक्षा की है। संघ कार्यकर्ताओं के लगातार प्रयास से पिछले 10 वर्षों में पूरे देश में 10500 शाखाएं बढ़ी हैं। वर्तमान में देश में शाखाओं की कुल संख्यां 50400 है। इनमें से 91 प्रतिशत शाखाएं ऐसी है जहाँ 40 वर्ष से कम आयु के स्वयंसेवक आते हैं। 9 प्रतिशत शाखाओं 40 वर्ष से अधिक आयु के स्वयंसेवक आते हैं इस तरह संघ को हम एक युवा शक्ति कह सकते हैं। उन्होंने कहा कि लोगों का कहना है कि संघ एक नगरीय संगठन है पर ऐसा नही है। अभी संघ का 60 प्रतिशत काम ग्रामीण इलाकों में चल रहा है, जबकि 40 प्रतिशत ही शहर में है। अभी देश के 90 प्रतिशत तहसीलों (प्रखंडों) में संघ के कार्यकर्ता पहुँच चुके हैं। देश के 53000 से अधिक मंडलों (10 से 12 गाँवों को मिलाकर एक मंडल) में से 50 प्रतिशत से अधिक मंडलों तक संघ का काम पहुँच चुका है। युवाओं को संघ से जोड़ने के लिए ज्वाईन आर.एस.एस. (Join RSS) नाम से संघ की वेबसाईट पर व्यवस्था बनायी गयी है। गत चार वर्ष में वेबसाईट के माध्यम से संघ से जुड़ने वाले युवाओं की सख्यां बढ़ी है। 2012 में जहाँ प्रतिमाह 1000 युवा संघ से जुड़ रहे थे वही 2015 में संख्यां बढ़कर 8000 प्रतिमाह हो गई है। आंकड़े दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में युवा संघ से जुड़ने की इच्छा रखते हैं। सरकार्यवाह जी ने कहा कि वर्तमान में सेवा के क्षेत्र एवं ग्रामीण विकास पर संघ काम कर रहा है। आगे जल प्रबंधन, जल संरक्षण व जल संवर्धन पर काम करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। यदि हम एकत्र मिलकर काम करें तो भीषण जल संकट से बचा जा सकता है। आगामी योजनाओं में संघ ने इस पर काम करने का निर्णय लिया है और स्वयंसेवक इसमें लगेंगे। उन्होंने केन्द्र सरकार के स्वच्छता अभियान की तारीफ करते हुए कहा कि यह सराहनीय कार्य है इसे और प्रभावी बनाने की जरूरत है। इस पर भी स्वयंसेवक काम करेंगे। साथ ही संघ चाहता है कि देश में प्रदूषण की समस्या दूर हो एवं व्यसन मुक्त भारत बने।
पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब जी की बेअदबी पर समस्त देशवासी आहत – सुरेश भय्या जी जोशी अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल बैठक रांची 2015 रांची (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश भय्या जी जोशी ने कहा कि समस्त भारतवासियों की श्रद्धा व आस्था के केन्द्र पवित्र श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के पावन स्वरूप की बेअदबी करने से सभी देशवासियों के हृदय पर गहरा आघात पहुंचा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस कृत्य की कड़े शब्दों में निंदा करता है. श्री गुरु ग्रंथ साहिब ‘जगत जोत’ गुरु स्वरूप तो हैं ही, साथ ही भारत की चिरन्तन आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के संवाहक हैं तथा ‘सांझीवालता‘ के नाते समस्त भारत को जाति-पाति, मत-पंथ, ऊँच-नीच व क्षेत्र- भाषा के विभेदों से ऊँचा उठाकर एक साथ जोड़ते हैं. जिला फरीदकोट के बरगाड़ी गाँव में हुई इस दुःखद घटना के बाद, तरनतारन जिले के ग्राम बाठ एवं निज्झरपुरा में तथा लुधियाना के घवंदी गांव में क्रमवार हुई घटनाओं से स्पष्ट है कि कुछ स्वार्थी व राष्ट्रविरोधी तत्व सुनियोजित षड़यंत्र के अन्तर्गत पंजाब का सौहार्दपूर्ण वातावरण बिगाड़ना चाहते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उपरोक्त सभी कृत्यों की निंदा करते हुए सम्पूर्ण देश व समाज का आवाहन करता है कि वह ऐसे षड़यंत्रों को विफल कर भारत की धार्मिक व सामाजिक सौहार्द की परम्परा को सुदृढ़ करे. संघ का पंजाब सरकार से यह अनुरोध है कि वह इन कुकृत्यों के दोषी तत्वों को चिह्नित कर कठोर कार्रवाई करे और केन्द्र सरकार से भी आग्रह है कि इन षड़यंत्रों के पीछे सक्रिय तत्वों की जाँच कर उन्हें उजागर करे. Nation shocked at the desecration of sacred Shri Guru Granth Sahib – Suresh Bhayya Ji Joshi Posted date: October 30, 2015 Ranchi (VSK). RSS Sarkaryawah Suresh Bhayya Ji Joshi said that The insulting act of desecration of the sacred Shri Guru Granth Sahib which is the center of veneration and devotion for the entire Bharatiya samaj has shocked all the countrymen. The Rashtriya Swayamsevak Sangh condemns this sacrilegious act in strongest terms. Shri Guru Granth Sahib is not only the ‘Jagat Jyot’ (Living Soul ) – an embodiment of Guru but also a carrier of our eternal spirituality and is the cultural conscience that transcends the differences of caste, creed, way of worship, social status, sect, region and language to bring together all the Bharatiyas with a thread of oneness. The sad incident in Bargadi village of Faridkot district followed by series of incidents in village Baath and Nijjharpura in Taran Taran district and at village Ghavandi in Ludhiana district clearly point to a pre-planned conspiracy of vested interests and anti national elements to disturb the harmonious atmosphere of Punjab. Rashtriya Swayamsevak Sangh condemns all the above incidents and calls upon the countrymen to foil these conspiracies and strengthen the tradition of religious and social harmony of Bharat. RSS appeals to the Government of Punjab to take firm action against the miscreants involved in the above demeaning acts and also urge the Central Government to investigate and expose the perpetrators behind this conspiracy.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल बैठक रांची में आरम्भ नई दिल्ली/रांची, 29 अक्टूबर 2015, (इविसंके)। अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक से संबंधित जानकारी देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा कि शुक्रवार से प्रारंभ होने वाली बैठक में धार्मिक आधार पर जनसंख्या वृद्धि के जो आंकड़े सामने आए हैं। उससे जनसंख्या वृद्धि में असमानता ध्यान में आयी है। इस मुद्दे पर बैठक में प्रस्ताव आ सकता है। हाल ही में प्रकाशित हजारिका आयोग की रिपोर्ट में बंगाल और आसाम में घुसपैठ द्वारा विदेशियों की जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव देखकर चिंता व्यक्त की गई है और ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाले 25 वर्षों में इस देश में भारतीय ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह चिंता का विषय है। इस पर समाज को जागरूक करने के लिए बैठक में चर्चा हो सकती है। मनमोहन वैद्य जी ने कहा कि इस बैठक में 11 क्षेत्र और 42 प्रांतों के प्रांत संघचालक, प्रांतकार्यवाह, प्रांत प्रचारक, क्षेत्र संघचालक, क्षेत्र कार्यवाह, क्षेत्र प्रचारक, विविध क्षेत्रों में संघ का काम कर रहे प्रतिनिधियों की उपस्थिति है। शुक्रवार प्रातः 08: 30 बजे यह बैठक प्रारंभ होगी। इसमें संघ कार्य पर चर्चा की जाएगी। हाल के दिनों में संघ के प्रति लोगों, खासकर युवाओं की रुचि बढ़ी है। बड़ी संख्या में नए लोग संघ से जुड़ रहे हैं। 2012 में यह संख्या 1000 व्यक्ति प्रतिमाह थी जो अक्टूबर 2015 में बढ़कर 8000 व्यक्ति प्रतिमाह हो गई है। संघ से जुड़ रहे इन नए लोगों को केसे संघ के कामों में उपयोग किया जाए, इसकी भी चर्चा बैठक में हो सकती है। संघ के कार्य को देशव्यापी करने के लिए भी बैठक में विचार होगी। संघ दृष्टि से देश में 265 विभाग हैं, करीब 840 जिले हैं और 6100 ग्रामीण खण्ड हैं। 90 प्रतिशत खंडों तक संघ कार्य पहुँच चुका है। अगला लक्ष्य 55000 मंडलों तक कार्य पहुंचे ऐसा विचार करना है। संघ अधिकारियों का अधिकतम समय प्रवास में बीतता है। इस साल की योजना में सर संघचालक जी क्षेत्र सह प्रवास करेंगे। इसमें प्रांत स्तर के कार्यकर्ता शामिल होंगे। वही सर कार्यवाह एवं सह सरकार्यवाह प्रान्त स्तर का प्रवास करेंगे। जिसमें जिला स्तर के कार्यकर्ता शामिल होंगे। सभी अखिल भारतीय अधिकारी विभागशः प्रवास करेंगे और खंड स्तर के कार्यकर्ता इसमें भाग लेंगे। क्षेत्र व प्रांत स्तर के कार्यकर्ता खंड स्तर तक प्रवास करेंगे तथा वहां के स्वयंसेवक एवं संघ के समर्थकों की बैठक लेंगे।
भारत में पुरस्कार लेने और लौटाने के राजनीतिक मंच पर कम्युनिस्टों का माँस भोज-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री नयनतारा सहगल नेहरु परिवार से ताल्लुक़ रखतीं हैं । अपने ज़माने में अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ती लिखती रही हैं । उनके लिखे पर कभी साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कार दिया था । पिछले दिनों उन्होंने वह पुरस्कार साहित्य अकादमी को वापिस कर दिया । वैसे तो उम्र के जिस पड़ाव पर नयनतारा सहगल हैं , वहाँ उनके संग्रहालय में कोई पुरस्कार पत्र होने या न होने से बहुत अन्तर नहीं पड़ता । उनका कहना है कि देश में हालात ठीक नहीं हैं । साम्प्रदायिकता बढ़ रही है और कोई कुछ नहीं कर रहा । इसलिये वे अपना पुरस्कार लौटा रही हैं । नयनतारा सहगल को इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि 1947 से लेकर 2015 तक उन्हें पहली बार देश में बढ़ रही साम्प्रदायिकता दिखाई दी और उन्होंने घर के सामान की तलाशी लेकर देश को लौटाने के लिये साहित्य अकादमी द्वारा दिया गया प्रशस्ति पत्र ढंूढ निकाला । लिखती लिखातीं तो वे काफ़ी अरसे से हैं और साम्प्रदायिकता भी तब से ही है जब से वे लिखती लिखाती रही हैं , लेकिन कभी साम्प्रदायिकता उन्हें दिखाई नहीं दी और न ही उनकी आत्मा उस समय पुरस्कार वापिस करने के लिये वजिद हुई । अब नरेन्द्र मोदी की सरकार आते ही उनकी आत्मा अतिरिक्त सक्रिय हो गई । अरसा पहले साहित्य अकादमी द्वारा दिये गये पुरस्कार को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चेष्टा, भारत के अंग्रेज़ी भाषा साहित्य के इतिहास की दुखद घटना ही कही जायेगी । लेकिन इस पर आश्चर्य इसलिये नहीं होता कि देश में अंग्रेज़ों के और अंग्रेज़ी साहित्य के इतिहास में ऐसी दुखद घटनाओं के अम्बार दिखाई दे जाते हैं । भारत में अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य के पुरोधा नीरद चौधरी तो अंग्रेज़ों के चले जाने से ही इतना दुखी हुये थे कि हिन्दुस्तान छोड़ कर ही इंग्लैंड में जा बसे थे । नयनतारा का धन्यवाद करना होगा कि वे इतनी साम्प्रदायिकता के बाबजूद कम से कम देश में तो रह रहीं हैं । देश पर इतना अहसान क्या कम है ? लेकिन नयनतारा सहगल के तुरन्त बाद ,कभी आई ए एस अधिकारी रहे अशोक वाजपेयी ने भी अपना पुरस्कार साहित्य अकादमी को लौटा दिया । अशोक वाजपेयी प्रशासन चलाने के साथ साथ हिन्दी में कविता कहानी भी लिखते रहते थे । प्रशासनिक क्षेत्र के लोग उन्हें हिन्दी साहित्य में निपुण बताते हैं लेकिन हिन्दी साहित्य के लोग उनको प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर ज़्यादा पहचानते है । प्रशासनिक अधिकारी रहते हुये कोई व्यक्ति साहित्य के क्षेत्र में जितना ऊँचा क़द कर सकता है , उतना अशोक जी ने कर लिया था । उनकी उन कविता कहानियों पर उन्हें भी कभी साहित्य अकादमी ने इनाम इकराम दिया था । ये सब बातें मध्य प्रदेश के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह के ज़माने की हैं । अर्जुन सिंह थे तो खाँटी राजनैतिक क़िस्म के प्राणी ही , लेकिन कविता कहानी और क़िस्से सुनने का उन्हें भी काफ़ी शौक़ था । वैसे उनको लेकर कई क़िस्से भी प्रचलित हो गये थे । इस कारण से मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह व अशोक वाजपेयी की जोड़ी ख़ूब जम गई थी । एक को क़िस्से कहानी सुनने का शौक़ था और दूसरे को लिखने और सुनाने का । इसलिये जोड़ी जमनी ही थी । कई लोग तो यह भी कहते हैं कि इस जोड़ी ने मध्य प्रदेश में आतंक जमा रखा था । उन जिनों अशोक वाजपेयी की कविताई ख़ूब फली फूली और जगह जगह से इनाम इकराम भी मिले । दरबार में रहने का यह लाभ होता ही है । यह परम्परा आज की नहीं प्राचीन काल की है । जिन दिनों भोपाल में गैस कांड हुआ था ,लोग कुत्ते बिल्ली की तरह मर रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह इसके लिये ज़िम्मेदार कम्पनी के मालिक को जेल भेजने की बजाए , जहाज़ देकर देश से बाहर सुरक्षित पहुँचाने के राष्ट्रीय कार्य में लगे हुए थे , उन दिनों भी चर्चा हुई थी कि शायद अशोक वाजपेयी विरोध स्वरुप सरकार द्वारा दिया गया कोई मोटा न सही , छोटा पुरस्कार ही वापिस कर देंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ था । आत्मा को भी समय स्थान देख कर ही जागना होता है । शायद अशोक वाजपेयी को लगा होगा कि आत्मा के जगने का वह राजनैतिक लिहाज़ से उचित समय नहीं था । सब साहित्यकार जानते हैं कि पुरस्कार लेने और लौटाने की भी पूरी राजनीति होती है । अचानक अब अशोक वाजपेयी ने फ़ैसला ले लिया कि जब नयनतारा सहगल ने घर की सफ़ाई शुरु कर दी है और इनाम वापिस करने शुरु कर दिये हैं तो उन्हें भी पीछे नहीं रहना चाहिये । उन्होंने भी अपना साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार वापिस लौटाने की घोषणा कर दी है । कारण उनका भी वही है कि देश की हालत बिगड़ती जा रही है । प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं ? वैसे कई साहित्यकार इस बात को लेकर भी हैरान हैं कि उन्होंने केवल साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार ही क्यों लौटाया ? पुरस्कार तो उन्हें अर्जुन सिंह के ज़माने में और भी बहुत मिले थे । लेकिन क्या लौटाना है और क्या संभाल कर रखना है , इसे अशोक वाजपेयी से बेहतर कौन जान सकता है । ऐसे साहित्यकार साहित्य को थाली बना कर प्रयोग करते हैं । जीवन भर यजमान से उस थाली में भर भर कर दान दक्षिणा प्राप्त करते रहते हैं । उसके बलबूते साहित्य की रणभूमि में चिंघाड़ते रहते हैं । समय निकाल कर भारत भवन में घुस कर साहित्यिक खर्राटे मारते हैं । शिष्य मंडली उन खर्राटों की भी व्यंजनामूलक व्याख्या करती है । जब सूर्य अस्त होने का समय आता है , यजमान के घर से 'अब कुछ नहीं मिलेगा' का आभास होने लगता है तो ग़ुस्से में आकर, अब तक का माल असबाब समेट कर ख़ाली थाली नये यजमान की ओर फेंक देते हैं । अशोक वाजपेयी से बडा प्रयोगधर्मी साहित्यिक जगत में कौन है ? जिसे वे पुरस्कार लौटाने की संज्ञा दे रहे हैं , वह मात्र ग़ुस्से में आकर नये यजमान की ओर फेंकी गई ख़ाली थाली की झनझनाहट है । इसे मध्यप्रदेश में वाजपेयी के सब मित्र अच्छी तरह जानते हैं । इस समय सचमुच अर्जुन सिंह की बहुत याद आ रही है । वे आज होते तो शिष्यों को यह दिन देखने पड़ते ? केरल के साहित्यकार साराह जोसफ़ और उर्दू साहित्यकार रहमान अब्बास ने भी अपना सम्मान वापिस कर दिया है । इसी प्रकार पंजाब के तीन चार साहित्यकारों गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख,और आत्मजीत ने साहित्य अकादमी को,कुछ बरस पहले मिले पुरस्कार लौटा दिये । अब तक यह संख्या पचास के पास पहुँच गई है । दर्द सब का एक ही है । देश में साम्प्रदायिक वातावरण पनप रहा है । लोग असहिष्णु हो गये हैं । पर ये साहित्यकार यह खोजने की कोशिश नहीं करते कि इन की किन हरकतों से लोग असगिष्णु हो गये हैं ? लेकिन विरादरी में कुछ ऐसे लोग भी थे जिन के पास लौटाने के लिये कुछ नहीं था । उनके पास साहित्य अकादमी के निकायों की सदस्यता ही थी । दो तीन ने वही छोड़ दी । यह अलग बात है कि उनकी सदस्यता की मियाद वैसे भी कुछ समय में ख़त्म ही होने वाली थी । लेकिन ऐसे अवसर पर कम्युनिस्टों की सक्रियता देखते ही बनती है । कम्युनिस्टों के लिये राजनैतिक युद्ध का अपना दर्शन है । उसमें नैतिकता अनैतिकता का प्रश्न सदा गौण रहता है । जब लड़ाई शुरु होती है तो सेना के विशेषज्ञ प्रथम रक्षा पंक्ति के ध्वस्त हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुये द्वितीय रक्षा पंक्ति और उससे भी आगे तृतीय रक्षा पंक्ति तक की तैयारी करके रखते हैं । उसी की तर्ज़ पर क्म्युनिस्ट पार्टियाँ दुनिया भर में लोकयुद्ध की तैयारी करती हैं । लेकिन वे प्रथम रक्षा पंक्ति कभी तैयार नहीं करतीं । क्योंकि वे जानते हैं कि इस रक्षा पंक्ति में युद्ध आम जन के बीच में जाकर लड़ना होता है और उसका फ़ैसला भी आम जनता ही करती है । लोकतंत्र के इस लोकयुद्ध में उनके जीतने की संभावना लगभग शून्य होती है । चीन में जो कम्युनिस्टों का मक्का माना जाता है , उसमें भी नाम तो आम जनता का ही लिया जाता है लेकिन साम्यवादी तानाशाही के ख़िलाफ़ लोगों को कोई दूसरा समूह बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता । कम्युनिस्टों की इस रणनीति की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि उनके लोक युद्धों में सामान्य आदमी या 'लोक' सदा ग़ायब रहता है । लेकिन साम्यवादियों का दावा रहता है कि लोक मानस को सबसे ज़्यादा वही जानते हैं । यह अलग बात है कि लोक मानस को समझ पाने का उनका दावा इतिहास ने सदा झुठलाया है । भारत विभाजन के समय वे मुस्लिम लीग के साथ थे और पाकिस्तान निर्माण के समर्थक थे । 1942 में अंग्रेज़ो भारत छोड़ो के आन्दोलन के समय वे अंग्रेज़ों के साथ थे और भारतीय मानस को समझने का दावा भी कर रहे थे । 1962 में चीन के आक्रमण में वे चीन के साथ थे और फिर भी भारत के लोगों के मन को समझने का दावा कर रहे थे । 1950 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के सभी समूहों को मिला कर वे लगभग साढ़े पाँच सौ की लोक सभा में वे पचास से ज़्यादा सीटें कभी जीत नहीं सके , फिर भी उनका दावा रहता है कि भारतीय जन के असली प्रतिनिधि वही हैं । लेकिन कहीं भी राजनैतिक भोज हो या साहित्यिक भोज हो , कम्युनिस्ट उसकी गंध मीलों दूर से सूंघ लेते हैं । उसके बाद झपटा मार कर वे मंच पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं और अपना नुक्कड़ नाटक चालू कर देते हैं । एक के बाद एक , आकाशमार्ग से पंख फैलाते हुए उनका धरती पर उतरना बहुत ही मनमोहन दृष्य उपस्थित करता है । आकाश मार्ग से उतरने का यह भव्य दृष्य दो बार होता है । पहले पुरस्कार प्राप्त करने के समय और दूसरा , यदि जरुरत पड़ जाये तो , उसे लौटाने के समय । नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी द्वारा साहित्य के धरातल पर शुरु किये गये इस साहित्यिकनुमा राजनैतिक भोज की गंध देखते देखते कम्युनिस्ट खेमे में पहुँच गई । वे बड़ी संख्या में वहाँ इक्कठे हो गये और अब धडाधड ,जिस के पास साहित्य अकादमी का पुरस्कार था वह साहित्य अकादमी का पुरस्कार और जिस के पास कोई प्रदेश या ज़िला स्तर का पुरस्कार था उसने वही पुरस्कार लौटाना प्रारम्भ कर दिया । इन्दिरा गान्धी के ज़माने में कम्युनिस्ट उनके काफ़ी समीप चले गये थे । संकट काल में उनकी मदद कर दिया करते थे । उनके कामों की प्रगतिवादी शब्दावली में व्याख्या करके वैचारिक गरिमा प्रदान करने का वामपंथी कार्य भी करते थे । इसके बदले में उन्हें सरकार से इनाम इकराम मिलते रहते थे । साहित्य के काम धंधे में लगी टोली को साहित्यिक इनाम मिलते थे । जिन्हें पढ़ाने का शौक़ था , उनको इनाम में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय दिया गया । जिनकी राजनीति में रुचि थी उनको पार्टी में शामिल करके एक आध मंत्री पद भी दिया गया । बीच बीच में रुस सरकार भी इनको मास्को में बुला बुला कर साहित्यिक पुरस्कार नुमा प्रशस्ति पत्र दिया करती थी । सरकारी ख़र्च पर घूमना फिरना तो होता ही था । अब वह युग बीत गया है । लेकिन साम्यवादी खेमा अस्त होने से पहले एक अंतिम लड़ाई लड़ लेना चाहता है । इसलिये अपने ज़माने में प्राप्त इस सारी पुरानी पड़ गई सामग्री को समेट कर , अपनी वाममार्गी साधना से एक ऐसा हथियार बनाना चाहता है जो नरेन्द्र मोदी को चित कर दे । साहित्यिक पुरस्कार लौटाने का यह नुक्कड़ नाटक उसी का हिस्सा है । अलबत्ता इस बात का ध्यान सभी रख रहे हैं कि सम्मान लौटाने की सीमा सम्मान देने वाली संस्था से प्राप्त सूचना पत्र लौटाने तक ही सीमित रहे । यहाँ तक सम्मान से प्राप्त धनराशि का प्रश्न है , उसको इस अभियान से दूर ही रखा जाये । बहुत से साहित्यकार पुरस्कार लौटाने में यही बेईमानी कर रहे हैं । अरसा पहले इनाम देने वाली संस्था ने जो इनाम देने की चिट्ठी भेजी थी और उसके साथ प्रमाण पत्र नत्थी किया था , वह तो इनाम देने वाली संस्था को लौटा रहे हैं , लेकिन साथ आया चैक अभी भी गोल कर रहे हैं । सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाए । थोथा सर्टिफ़िकेट अकादमी की ओर उड़ा दिया और धन रुपी सार अभी भी संभाल कर ही रखा हुआ है । साहित्यिक पुरस्कारों के माँस भोज में सारा माँस चट कर लेने के बाद यह सूखी हड्डियाँ लौटाने का नया साम्यवादी पर्व शुरु हुआ है । कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में वे लोकतांत्रिक पद्धति से कभी जीत नहीं सकते , इसलिये तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति से लेकर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके जम्मू कश्मीर को अलग स्वतंत्र राज्य बनाने के प्रयास करते रहे । लेकिन जन विरोध के कारण वे वहाँ भी असफल ही रहे । तब उन्होंने अपनी रणनीति बदली और कांग्रेस में घुस कर वैचारिक प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करने में लग गये । उसमें उन्होंने अवश्य किसी सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली । कांग्रेस को भी उनकी यह रणनीति अनुकूल लगती थी । इससे कांग्रेस को अपनी तथाकथित प्रगतिशील छवि बनाने में सहायता मिलती रही और कम्युनिस्टों को बौद्धिक जुगाली के लिये सुरक्षित आश्रयस्थली उपलब्ध होती रही । लेकिन इन आश्रयस्थलियों में सुरक्षित बैठकर बौद्धिक जुगाली करते इन तथाकथित साहित्यकारों , रंगकर्मियों , फिल्मनिर्माताओं और इतिहासकारों में एक अजीब हरकत देखने में मिलती है । भारतीय इतिहास, संस्कृति , साहित्य इत्यादि को लेकर जो अवधारणाएँ ,अपने साम्राज्यवादी हितों के पोषण के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचलित की थीं , ये भलेमानुस भी उन्हीं की जुगाली कर रहे हैं , जबकि रिकार्ड के लिये साम्यवादी जनता में यही प्रचारित करते हैं कि उनके जीवन का अंतिम ध्येय ही साम्राज्यवाद की जड़ खोदना है । भारत में यह विरोधाभास आश्चर्यचकित करता है । ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को लेकर जो अवधारणाएं स्थापित कर रहे थे , वे भारतीयता के विरोध में थीं । उनका ध्येय भारत में से भारतीयता को समाप्त कर एक नये भारत का निर्माण करना था , जिस प्रकार चर्च ने यूनान में यूनानी राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये यूनान का निर्माण कर दिया और इस्लाम ने मिश्र में वहाँ की राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये वर्तमान मिश्र का निर्माण कर दिया । इसी को देख कर डा० इक़बाल ने कभी कहा था--- यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहाँ से ।' इस मिटने का अर्थ वहाँ की राष्ट्रीयता एवं विरासत के मिटने से ही था । इसी का अनुसरण करते हुये ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुस्तान को भी बीसवीं शताब्दी का नया यूनान बनाना चाहते थे । उस समय की कांग्रेस में उन्होंने ऐसे अनेक समर्थक पैदा कर लिये थे जो भारतीयता को इस देश की प्रगति में बाधा मानकर , उसे उखाड़ फेंककर , यूनान की तर्ज़ पर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । कांग्रेस में पंडित नेहरु इसके सरगना हुये । कम्युनिस्ट भी इसी अवधारणा से सहमत थे , इसलिये इस मंच पर बैठने वाले वे स्वाभाविक साथी बने । मुस्लिम लीग ने तो भारतीय इतिहास और संस्कृति को नकारने से ही अपनी शुरुआत की थी । वे इस मंच के तीसरे साथी हुये । लेकिन कोढ में खाज कि तरह ये तीनों दल या समूह अपनी राजनैतिक लड़ाइयाँ तो अलग अलग लड़ते थे लेकिन भारत की संस्कृति के विरोध में इक्कठे नज़र आते थे । इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा तैयार किये गये इस वैचारिक अनुष्ठान में कांग्रेस और कम्युनिस्ट स्वाभाविक साथी बने । ज़ाहिर है भारत में भारतीयता विरोधी यह वैचारिक अनुष्ठान ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों ने तैयार किया था , इसलिये इसकी सफलता के लिये वे 1947 के बाद से ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से , दूर व नज़दीक़ से इसकी सहायता करते रहे । कहना न होगा , जहाँ तक सांस्कृतिक व इतिहास के फ़्रंट की लड़ाई का प्रश्न है , भारत में कम्युनिस्ट इच्छा से या अनिच्छा से ब्रिटिश -अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों का मोहरा बन गये । भारतीय राजनीति का पिछले तीस साल का कालखंड तो इस मोर्चा के लिये अत्यंत लाभकारी रहा और वे भारतीयता के विरोध को ही भारत की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने में कामयाब हो गये । इसका कारण केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति का वर्चस्व स्थापित हो जाना था । भारतीयता विरोधी विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिये यह समय सबसे अनुकूल रहा । लेकिन २०१४ में भारतीयों ने तीस साल के बाद लोकतांत्रिक पद्धति से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के इस संयुक्त मोर्चा को ध्वस्त कर दिया । पहली बार लोक सभा में किसी एक राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । कम्युनिस्टों के लिये सबसे कष्टकारी बात यह थी कि यह बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला । जिन राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध को कम्युनिस्टों ने अपने अस्तित्व का आधार ही बना रखा था , उन्हीं राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन में भारत के लोग एकजुट होकर खड़े हो गये । कम्युनिस्टों की आश्रयस्थलियां नष्ट होने के कगार पर आ गईं । इतने साल से जिस स्वप्न लोक में रहते रहे और उसी को धीरे धीरे यथार्थ मानने लगे थे , उसे भारत की जनता ने एक झटके में झटक दिया । भारतीय मानस को समझ लेने का उनका दावा ख़ारिज हो गया । दरबार उजड़ गया । भारत के इतिहास और संस्कृति की साम्राज्यवादी व्याख्या पर ख़ुश होकर राजा सोने की अशर्फ़ी इनाम में देता था , वह राजपाट लद गया । लगता है दरबार के उजड़ जाने पर , उसके आश्रितों की फ़ौज विलाप करती हुई राजमार्ग पर निकल आई हो । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की यह फ़ौज अब अंतिम लड़ाई के लिये मैदान में निकली है । जिस प्रकार आतंकवादी अपनी लड़ाई में बच्चों को , स्त्रियों को चारे के रुप में इस्तेमाल करते हैं , उसी प्रकार कम्युनिस्ट अपनी लड़ाई में कलाकारों , लेखकों , साहित्यकारों , चित्रकारों , इतिहासकारों का प्रयोग हथियार के रुप में करते हैं । लेकिन इस काम के लिये वे सचमुच साहित्यकारों , कलाकारों या इतिहासकारों का प्रयोग करते हों , ऐसा जरुरी नहीं है । क्योंकि कोई भी साहित्यकार या इतिहासकार आख़िर कम्युनिस्टों की इस ग़ैर लोकतांत्रिक लड़ाई में हथियार क्यों बनना चाहेगा ? इसलिये कम्युनिस्ट अत्यन्त परिश्रम से अपने कैडर को ही साहित्यकार, इतिहासकार, और सिनेमाकार के तौर पर प्रोजैक्ट करते रहते हैं , ताकि इस प्रकार के संकटकाल में उनका प्रयोग किया जा सके । भारत में कम्युनिस्टों को इस काम में सत्तारुढ कांग्रेस से बहुत सहायता मिली । अपने लोगों को विभिन्न सरकारी इदारों से समय समय पर पुरस्कार दिलवा कर उनका रुतबा बढ़ाया गया । पिछले साठ साल से कम्युनिस्ट भारत में यही काम कर रहे थे । इसलिये उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त या फिर जिनका रुतबा बढ़ गया हो , ऐसे लोगों की एक छोटी मोटी फ़ौज तैयार हो गई है । लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है , तब से कम्युनिस्ट खेमे में हाहाकार मचा हुआ है । भाजपा को हराने के लिये कम्युनिस्ट न जाने कितने कितने फ़ार्मूले जनता को समझाते रहे । लेकिन इस देश की जनता कम्युनिस्टों की भाषा नहीं समझती क्योंकि उनकी भाषा इस देश की मिट्टी से निकली हुई नहीं होती । उनकी भाषा कभी मास्कों की भट्टी से तप कर निकलती थी और कभी बीजिंग की भट्टी से । इसलिये देश के लोगों ने कम्युनिस्टों को हाशिए पर पटक दिया । इसलिए कम्युनिस्ट अब दूसरी व तीसरी रक्षा रक्षा पंक्तियों की आरक्षित सेना को इस लोक विरोधी लड़ाई में उतार रहे है । साहित्यकारों को आगे करके अपनी राजनैतिक लड़ाई लड़ना कम्युनिस्टों की पुरानी शैली है । उनके लिये साहित्य की स्वतंत्र इयत्ता नहीं है , वह केवल पार्टी के प्रचार का साधन मात्र है । उनके लिये साहित्यकार की उपयोगिता भी यही है , जिसका उपयोग वे इस समय कर रहे हैं । साहित्य और साहित्यकार की कम्युनिस्टों के खेमे में क्या औक़ात है , इसका ख़ुलासा आधुनिक कम्युनिस्टा अरुन्धति राय ने किया है । उसके अनुसार,हमारी रणनीति केवल साम्राज्य को ललकारने की ही नहीं होनी चाहिये, बल्कि हर तरीक़े से उसकी घेराबन्दी करने की होनी चाहिये । इसकी प्राणवायु समाप्त करने की , इसकी हँसी उड़ाने की , इसको लज्जित करने की होनी चाहिये । यह सब कुछ हमें अपनी कला, अपने संगीत,अपने साहित्य, अपने हठ, अपनी योग्यता, अपने परिश्रम से करना होगा । लोगों को अपनी कहानियाँ सुनाने की योग्यता से करना होगा ।" कम्युनिस्ट लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ,जनता के पास जाकर , उससे उनकी भाषा में संवाद रचना करने में असफल हैं , क्योंकि वे स्वयं आयातित प्राणवायु पर जीते हैं । लेकिन लोकशाही को गिराने के लिये वे साहित्य का दुरुपयोग करने में लज्जा महसूस नहीं करते । उनकी एक मात्र योग्यता , जिसकी ओर राय ने इशारा किया है , हठपूर्वक अपने कहानी को बार बार दोहराते रहना ही है । कम्युनिस्ट , साहित्य को प्रचार सामग्री और साहित्यकार को पार्टी का भोंपू मानते हैं । यही कारण है कि अब लोकशाही के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में वे, साहित्यकारों को उपहास का पात्र बना रहे हैं । दरअसल साहित्य जगत से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि पुरस्कार प्राप्त करने की भी अपनी एक स्थापित राजनीति है । जिनकी किताबों को पढ़ने के लिये दस पाठक भी नहीं मिलते और जिनकी किताब का पाँच सौ प्रतियों में छपा पहला संस्करण बिकने में दस साल खा जाता है, कई बार उन्हें ही साहित्य शिरोमणि घोषित किया जाता है । कई बार ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार मिलता है जिसके बारे में पुरस्कार मिलने के बाद ही साहित्य जगत को पता चलता है कि पुरस्कार विजेता लिखता भी है । इनमें से कुछ साहित्यकार तो ऐसे हैं जिनके 'अमर साहित्य' की चर्चा केवल 'आई ए एस सर्किल' में ही होती है । अनेक साहित्यकार अपने लिखें को अपने परिवार वालों को सुना कर ही संतोष प्राप्त करते हैं । शेष पार्टी के कैडर में गा गाकर तालियाँ बटोरते हैं । रही बात पुरस्कारों की , तो अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों को ' की कहावत का अर्थ हिन्दी वालों को इनको पुरस्कार मिलते देख कर ही समझ में आया । यह साहित्य जगत का अपना काला बाज़ार है । जिस प्रकार पुरस्कार लेने की राजनीति है , उसी प्रकार पुरस्कार लौटाने की भी अपनी एक राजनीति है । जो उसी राजनीति के चलते पुरस्कार लेगा तो वह उसी राजनीति के आधार पर पुरस्कार लौटायेगा भी । नहीं लौटायेगा तो तंजीम से बाहर कर दिया जायेगा । जो अपने बलबूते पुरस्कार प्राप्त करता है , वह उसकी अपनी कमाई है । उसके लौटाने का सवाल कहाँ पैदा होता है ? लेकिन जिनको दरबार में रहने के कारण पुरस्कार मिला होता है , उनको संकट काल में दरबार के कहने पर पुरस्कार लौटाना ही होता है । दरबारी परम्परा में इसमें नया कुछ नहीं है । साम्यवादियों से बेहतर इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी में कहा भी गया है- धर्म से धड़ा प्यारा । पंजाब के औलख,भुल्लर और मेघराज मित्तर से ज़्यादा अच्छी तरह इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी की एक दूसरी साहित्यकार प्रो० दिलीप कौर टिवाणा ने पद्म श्री वापिस कर दी । अस्सी साल की उम्र में वैसे भी इन पुरस्कारों और तगमों की कोई औक़ात नहीं रह जाती । उम्र का एक हिस्सा होता है जिस में ये पुरस्कार और तगमे किसी भी व्यक्ति को प्रोजैक्ट करने में सहायता करते हैं । उतना लाभ इन तगमों से लिया जा चुका है । उम्र के चौथे मोड़ पर ये तगमे और पुरस्कार उस बाँझ पशु के समान हो जाते हैं , जिनसे जितना दूध लिया जा सकता था , लिया जा चुका है । अब आगे इसके बयाने और दूध देते रहने की कोई संभावना नहीं है । लोग उस बाँझ पशु को घर से निकाल देते हैं । अनेक साहित्यकारों के लिये इन तगमों और पुरस्कारों की भी यही स्थिति हो गई है । लेकिन उनकी रणनीति की दाद देनी पड़ेगी । उन्हेंने पुरस्कार लेने का भी लाभ उठाया और अब पुरस्कार लौटाने का भी लाभ उठा रहे हैं । भैंस जीती है तो दूध पाओ और उसके मरने के बाद चमड़े से भी पैसा कमाओ । पुरस्कार लौटाकर चमड़े से भी पैसा कमाने की साहित्यिक व्यवसायिकता का प्रमाण ही कुछ साहित्यकार दे रहे हैं । नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये कम्युनिस्ट टोला कितने ही हथकंडे अपना चुका है । लेकिन देश की जनता कम्युनिस्टों का साथ नहीं दे रही । अब उन्होंने साहित्यकारों को आगे करके यह नई लड़ाई छेड़ी है । लेकिन उन्हें शायद यह अहसास नहीं है कि रणभूमि में यह बहुत कमज़ोर बटालियन उतार दी गई है । यह कुछ देर के लिये मनोरंजन तो कर सकती है लेकिन देश की जनता को मुख्य मार्ग से हटा नहीं सकती । ऐसा नहीं कि पुरस्कार लौटाने वाले सभी साहित्यकार कम्युनिस्ट विचार धारा के खूँटे से बँधे लोग ही हैं । कुछ ऐसे भी हैं जिनका किसी भी विचार धारा से कोई रिश्ता नहीं है । वे भी पुरस्कार लौटाने वालों की जमात में शामिल हो गये हैं । ये लोग चलती भीड़ में शामिल होने वालों की श्रेणी के हैं । हर समाज में ऐसे लोग मिलते हैं । वैसे पुरस्कार लौटाने के इस नुक्कड़ नाटक में भाग लेने वाले साहित्यकारों को एक प्रश्न का उत्तर तो इस पूरे नाटक में देना ही होगा । हो सकता है कि वह प्रश्न स्क्रिप्ट में न हो । लेकिन मंच के नीचे बैठे दर्शकों को भी आधुनिक नुक्कड़ नाटकों में प्रश्न पूछने का अधिकार तो है ही । दर्शकों का वह प्रश्न है कि देश में इससे पहले भी अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हो चुकी हैं । दादरी की घटना ऐसी पहली घटना नहीं है । आपात काल को पुरानी घटना भी मान लिया जाये तो १९८४ में कांग्रेस की नाक के नीचे जो नरसंहार हुआ , उसे देख कर किसी की आत्मा क्यों नहीं जागी ? अब तो यह सिद्ध हो चुका है कि उस नरसंहार में उस समय के सत्ताधीशों का प्रत्यक्ष हाथ था । वैसे कार्ल मार्क्स आत्मा की सत्ता को नकारते हैं , लेकिन फिर भी कार्ल मार्क्स को ही साक्षी मान कर बता सकते हैं कि वे अब तक चुप क्यों थे ? वे अब तक चुप क्यों रहे , यह प्रश्न बंगला भाषा की जानी पहचानी लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी उठाया है । अरसा पहले नसरीन की पुस्तक पर सरकार ने पाबंदी आयद कर दी थी । पश्चिमी बंगाल की उस समय की साम्यवादी सरकार ने तो तसलीमा का कोलकाता रहना मुश्किल कर दिया था । उनको देश से निकालने की ही तैयारियाँ होने लगी थीं । कारण मुसलमानों की नाराज़गी ही कहा जा रहा था । तसलीमा के अनुसार कुछ भारतीय लेखकों ने उनकी पुस्तक पर पाबंदी लगाने और उन्हें पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने का भी समर्थन किया था। तसलीमा को इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि जब उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हो रहे थे । दिल्ली में वे लगभग एक नज़रबन्दी की हालत में रह रही थीं और उनकी किताब पर आधारित एक टीवी धारावाहिक का प्रसारण रोक दिया गया, तब तो लेखक चुप ही रहे । इस साहित्यिक प्रश्न पर तो उनकी आत्मा जाग सकती थी । तसलीमा नसरीन का ग़ुस्सा जायज़ ही है । जिस समय लेखकों को लेखक समुदाय के ही दूसरे लेखक की बोलने की आज़ादी के लिए ,विरोध ही दर्ज करवाना नहीं, बल्कि उसके लिए सक्रिय संघर्ष भी करना चाहिए था , तब तो वे सामूहिक रुप से भी और व्यक्तिगत रुप में भी चुप ही रहे । अब जब मुद्दा आपराधिक है और दंड संहिता से ताल्लुक़ रखता है , तो तीन दर्जन से भी ज़्यादा लेखक पारितोषिक वापिस देने के लिए तैयार हो गये । तसलीमा नसरीन का प्रश्न बिल्कुल जायज़ है लेकिन इसका उत्तर देने के लिए किसी भी लेखक ने स्वयं को बाध्य नहीं माना । यह पुरस्कार लौटाने वालों की जमात का दोहरा चरित्र ही स्पष्ट करता है । 23 अक्तूबर 2015 को साहित्य अकादमी की बैठक के समय जनवादी लेखक मंच के नाम से कुछ साहित्यकारों ने अकादमी भवन के बाहर प्रदर्शन किया और अकादमी के अध्यक्ष को ज्ञापन सौंपा । इन लेखकों का कहना था कि अकादमी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार की रक्षा के लिये आगे आना चाहिये । लेखकों का यह जत्था यह नहीं बता रहा था कि अकादमी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोध कब किया ? अकादमी विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित साहित्यिक कृतियों का मूल्याँकन करवाती है । उसके आधार पर उनमें से कुछ को पुरस्कार दिया जाता है । कर्नाटक में एक जाने माने प्रतिष्ठित साहित्यकार कालबुर्गी की हत्या कर दी गई है तो वहाँ अपराधियों को दंडित करने के लिये साहित्यकारों को अवश्य लड़ना चाहिये । लेकिन साहित्यकार ऐसा न करके दिल्ली में साहित्य अकादमी के आगे क्या कर रहे हैं ? ज़ाहिर है उनका दुख कालबुर्गी की नृशंस हत्या को लेकर नहीं है , बल्कि वे उसकी ढाल बना कर नरेन्द्र मोदी की सरकार पर निशाना साधना चाहते हैं । यह वर्षों पुराना घटिया साम्यवादी तरीक़ा है , जिस पर से रंग रोगन पहले ही उतर चुका है । कालबुर्गी की आत्मा भी साम्यवादियों की इस हरकत पर आँसू बहा रही होगी । मरे हुये आदमी की लाश पर भी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने की यह निंदनीय हरकत है । लेकिन साम्यवादियों के लिये तो वैसे भी साहित्य रचना कला साधना नहीं है बल्कि पार्टी एप्रेटस का मात्र एक हिस्सा है । साहित्य अकादमी ने साहित्यकारों से अपील की है कि वे पुरस्कार को राजनैतिक लड़ाई का साधन न बनायें । वैसे तो साहित्य अकादमी की अपनी महिमा भी पूर्व काल में न्यारी ही रही है । एक बार जम्मू कश्मीर के एक सज्जन मोहम्मद यूसुफ़ टेंग ने , वहाँ के उस समय के मुख्यमंत्री शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की जीवनी आतिशे चिनार लिखी थी । वह जीवनी शेख़ के सुपुर्दे ख़ाक हो जाने के बाद छपी । लेकिन किताब पर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का नाम लेखक के नाते ही छाप दिया गया । जबकि टेंग ने किताब के शुरु में ही साफ़ कर दिया था कि मेरी शेख़ की जीवनी लिखने की इच्छा थी । इसलिये मैं उनके पास उनकी जीवन यात्रा की घटनाएँ और क़िस्से जानने के लिये जाता था और शेख़ मूड में आकर बताते भी थे । शेख़ से बातचीत करने के बाद घर आकर टेंग साहिब उनकी जीवनी लिखने का काम शुरु कर देते । इसके बाबजूद कोई घटना गल्त न लिखी जाये , इसके लिये वे लिखने के कुछ दिन बाद शेख़ को जाकर वह दिखा भी आते थे । कोई भी जीवनी लेखक प्रामाणिक सामग्री जुटाने के लिये यह सब करेगा ही । लेकिन बाद में उस किताब का लेखक ही शेख़ अब्दुल्ला को बता दिया गया । किताब के छपते ही साहित्य जगत में हंगामा हो गया कि इस किताब का लेखक किसको माना जाये ? शेख़ को या टेंग को ? शेख़ परिवार की राजनैतिक हैसियत देखते हुये टेंग तो भला क्या साहस दिखाते । वैसे भी उन्होंने इस बात का ख़ुलासा उस किताब में कर ही रखा था । लेकिन साहित्य अकादमी ने आनन फ़ानन में उर्दू भाषा के साहित्य का उस साल का पुरस्कार ही शेख़ मोहम्मद के नाम कर डाला । टेंग चुप रह गये । अब देखना होगा कि जब नयनतारा सहगल व अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी के दिये पुरस्कार लौटाने की शुरुआत कर दी है तो क्या अब्दुल्ला परिवार के लोग भी यह पुरस्कार लौटायेंगे ? आख़िर टेंग के साथ न्याय हो जाये , इसी को ध्यान में रखते हुये यह पुरस्कार लौटाया जा सकता है । कम्युनिस्टों को भ्रम था कि पुरस्कार लौटाने वाले नुक्कड़ नाटक से देश में कोहराम मच जायेगा । लेकिन ऐसा न होना था और न ही हुआ । कोहराम उनसे मचता है जिनका देश की जनता पर कोई प्रभाव हो । कुछ दिन अख़बारों में हाय तौबा तो मचती रही , इलैक्ट्रोंनिक चैनलों पर बहस भी चलती रही । लेकिन कम्युनिस्ट भी समझ गये थे कि यह पटाखा आवाज़ चाहे जितनी कर ले , ज़मीन पर इस का प्रभाव नगण्य ही होगा । सोनिया कांग्रेस , कम्युनिस्टों और साम्राज्यवादियों द्वारा लड़ी जा रही इस जन विरोधी लड़ाई में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाने का नुक्कड़ नाटक बिना कोई प्रभाव छोड़े समाप्त हो जाने से बौखला कर कुछ दिन पहले मैदान में दूसरी बटालियन उतारी गई । यह बटालियन उन लोगों की थी जो फ़िल्में बगैरह बनाते हैं । कई लोगों की फ़िल्में तो जनता देखती भी हैं , लेकिन इनमें से कई निर्माता ऐसे भी हैं जिनको अपनी फ़िल्मों के लिये दर्शक भी स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं । पर क्योंकि ऐसे निर्माता विदेशों से कुछ इनाम आदि बटोर ही लेते हैं इसलिये सजायाफ्ता की तरह इनामयाफ्ता तो कहला ही सकते हैं । वैसे कम्युनिस्टों की रणनीति में अच्छा फ़िल्म निर्माता वही होता है जिसकी फ़िल्म से आम जनता दूर रहती है । रामानन्द सागर कम्युनिस्टों की दृष्टि में अच्छे और प्रतिनिधि निर्माता नहीं थे क्योंकि उनके धारावाहिक रामायण को देखने के लिये इस देश की जनता अपना सारा काम काज छोड़ देती थी । साहित्यकारों के मोर्चे पर फ़ेल हो जाने के बाद इन फ़िल्म निर्माताओं ने रणभूमि में शक्तिमान की तरह मुट्ठियाँ तानते हुये प्रवेश किया । उनको लगता होगा कि उनको देखते ही देश की जनता उनके साथ ही मुट्ठियाँ भींचते हुये सड़कों पर निकल आयेगी लेकिन हँसी ठिठोली के अलावा इस अभियान में से कुछ नहीं निकला । कुछ दिन उन्होंने भी अपने इनाम बारह वापिस करने में लगाये । उसका हश्र भी वही हुआ जो मेहनत से पाले पोसे तथाकथित साहित्यकारों का हुआ था । अब उतरी है ढोल नगाड़े बजाते हुये अंतिम वाहिनी । यह वाहिनी स्कूलों , कालिजों व विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके उन अध्यापकों की है जो वहाँ कभी इतिहास पढ़ाते रहे हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके इरफ़ान हबीब इस सेना के आगे आगे झंडा लहराते हुये चल रहे हैं । उनके साथ रोमिला थापर तो है हीं । के एम पणिक्कर और मृदुला मुखर्जी दायें बायें चल रहे हैं । इस वाहिनी के मार्च पोस्ट से पहले केवल रोमांच पैदा करने के लिये प्रकाश भार्गव नामक वैज्ञानिक से पद्म श्री वापिस करने का बयान दिलवाया गया । लेकिन देश की वैज्ञानिक बिरादरी ने डा० प्रकाश के इस अवैज्ञानिक कार्य की सराहना नहीं की । मार्च पास्ट करती जा रही इतिहास विभाग के अध्यापकों की इस टुकड़ी का भी कहना है कि देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है । मत भिन्नता को लेकर असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जा रहा है । लेकिन नरेन्द्र मोदी चुप हैं , बोलते नहीं । उनको बोलना चाहिये । इरफ़ान हबीब यह नहीं बताते कि यह साम्प्रदायिकता कौन फैला रहे हैं । असहिष्णु कौन है ? इरफ़ान भाई अच्छी तरह जानते हैं कि यह साम्प्रदायिकता उन्हीं की सेना के लोग फैला रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सहायता से खड़ी की गई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इसकी शुरुआत हुई थी । इरफ़ान भाई अलीगढ़ विश्वविद्यालय का इतिहास तो जानते ही होंगे ? देश को बाँटने , विभिन्न फ़िरक़ों को आपस में लड़ाने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का कार्य इरफ़ान भाई की यही सेना कर रही है । रहा सवाल असहिष्णु होने का , सामी चिन्तन से ज़्यादा असहिष्णु भला कौन हो सकता है ? इरफ़ान भाई क्या ख़ुलासा करेंगे कि सामी चिन्तन को इस देश में कौन पाल पोस रहा है ? लेकिन आज हिमाचल प्रदेश के इतिहासकार कहे जाने वाले विपन चन्द्र सूद की बहुत याद आ रही है । कुछ साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गये । नहीं तो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के साथ मिल कर वही त्रिमूर्ति का निर्माण करते थे । आज होते तो इनके साथ चलते हुये कितने अच्छे लगते । नाचते गाते हुये साम्यवादी खेमे में इतिहासकार कहे जाने वाले ये लोग भी निकल जायेंगे । कुछ देर तक जनता का मनोरंजन होता रहेगा । लेकिन इससे भारत की राष्ट्रवादी शक्तियाँ और भी मज़बूत होकर निकलेंगी क्योंकि उनके पीछे देश की जनता है ।

Monday, September 21, 2015

RSS-Vagish Issar: RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conv...

RSS-Vagish Issar: RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conv...: RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conversation with Prafulla Ketkar, Editor, Organiser ‘STRENGTHENING THE WEAKEST LINK...
RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conversation with Prafulla Ketkar, Editor, Organiser ‘STRENGTHENING THE WEAKEST LINK WILL LEAD THE NATION TO DEVELOPMENT’ Deendayalji was a reluctant politician. By nature, he was a thinker and organiser. Still, when he was told to take the responsibility of Bharatiya Jana Sangh, he tried his best to transform the nature of Bharatiya politics with his golden touch. This 25th September marks the beginning of his birth centenary year. On this occasion, RSS Sarsanghachalak Mohan Bhagwat had a frank conversation with Prafulla Ketkar, Editor, Organiser and Hitesh Shankar, Editor, Panchjanya about this committed swayamsevak and Pracharak, and relevance of his thinking propounded in the form of Integral Humanism. Excerpts: Do you see reflection of Deendayalji’s political philosophy in the present day party politics? Is reality in tune with his vision? It is clearly evident that the nature and conduct of the present day politics is not in tune with the principles of Integral Humanism. Presently, politics is not for nation, not for the last man standing, but revolving around the interests of political parties. In rajniti (politics), raj that means power comes first, followed by niti (policy). When everyone thinks in the same way, everything revolves around ‘power’. Attaining power is an easy task, but policy making on certain principles is difficult. Society also thinks on the same lines, as people also evaluate political parties and politicians on electoral victory and defeat, and not what they do after victory or defeat. Victory and defeat depend on momentary waves, issues converted into calculations for votes. I am not saying it is because of the Constitutional provisions or political parties and the politicians are responsible for this, but this is a general melody. Even if a political party decides to work on ideological and policy lines, it gets defeated by people with selfish interests. In the absence of political maturity, parties tend to play with emotions for gaining power. Politics thus has become a race for attaining power. This political system, revolving around shortcuts for political power, has to be transformed and merely people sitting there cannot do that. Society has to do that. If voters come out of petty interests, forgoing individual, caste or community interest in larger national interest, only then will the situation change. Then, political parties will also have to follow the rule. If real political reforms take place, then things can change. Sometimes at critical junctures, when the situation becomes unbearable, people have voted for change, going beyond narrow interests. But this has to be more permanent than momentary. Consistent and stable political maturity of the society can transform the system in line with Integral Humanism. We are celebrating birth centenary year of Deendayalji. This year is also the golden jubilee year of his enunciation of Integral Humanism. The contexts have changed. How far do you see the relevance of his thinking in the present context? Context has definitely changed, but relevance of Integral Humanism will remain as the philosophical framework since it is based on eternal principles. Of course, principles have to be redefined in the present context. The strength of a society depends on the condition of the last man standing. Weakest link should be strengthened. This should be everybody’s concern. This will never change. But what kind of schemes should be devised to strengthen the weakest link so that it can change according to the context. This has to be done in the light of Integral Humanism. When Integral Humanism was articulated, Socialism was the buzz word in Bharat. Now there is talk of liberalisation and globalisation. How far has the context changed and Integral Humanism re-contextualised? The real issue is not about which word or ideological framework is in fashion, but honesty and intention in implementing the principles that ideology espouses. Both, Socialism and Liberalism were propounded for the overall development of the humanity. After establishing Communist rule in Russia in 1917, the credibility of Socialism and Communism deteriorated. The same is true for Liberal Capitalism. The US is trying to dominate the world in the name of Liberal Principles, but in reality there are only selfish interests and no liberalism. There was never a struggle for ideological supremacy, but of selfish interests. The action verifies the principles and not the other way round. Tomorrow if Communists come to power and sincerely follow the principles of Communism after attaining power, then perhaps they will realise the limitations of Communist ideology and can make necessary amends. Both Socialism and Capitalism come and go in reaction to each other. Socialists become Capitalists and vice a versa. But no one says that it is the failure of Socialism or Capitalism as for them it is not an ideological question, but just of power and selfish interests. In Bharat, can we really address this issue of sincerity about ideological positions, nurture the political culture of being honest about our ideological principles and act accordingly, is the real question. Here Integral Humanism shows the way. ‘Politics for Nation’ was at the basis of Deendayalji’s philosophy. Now there is a political change in the country and people have lot of expectations. Do you see this as an end of divisive and appeasement politics and beginning of a new era? I think I have addressed this in my answer to the first question. They will have to do it, but merely change of guard is not going to change the overall situation. If only one party tries to do that then there will always be doubt about how far they can go. If appeasement policies are followed, then how far they can go, I am not sure. Social awakening is also necessary for this. Ultimately, people get the government they deserve. Whether the society is ready to live and die for the nation is the real issue we need to address. Politicians will have to play their role, but society has to create the environment for as per that role. Both should go hand in hand. Slogans such as Garibi Hatao (eradicate poverty) will work until there is poverty. Once poverty is eradicated, once people are educated, then people in power will have to face more questions and challenges. So they may not like to face such a situation. Politicians should stay away from such temptation. They should facilitate all efforts to change the atmosphere towards national reconstruction. What can be the practical approach to bring Integral Humanism in practice? Whenever we think of a Darshan or philosophy, we do not limit it only for Bharat, but extend it for the whole universe. Saintly figures like Dyaneshwar also said that the whole world should see the rise of own Dharma. Dr Hedgewar also proposed a resolution in the Congress session on ‘Complete Independence for Bharat to free the world from the capitalist imperialism’, unfortunately which was not accepted. This goal of Bharat as Nation should be clear to the common people of Bharat. Integral Humanism is the thought process to realise the true potential of Bharat. This can resolve many problems of the world and not only of Bharat. World over all ideologies are exploitative and suppressive. Deendayalji provided alternative to all of them through Integral Humanism, based on the concept of Dharma. Till date, we have experimented with the system on the basis of foreign ideologies. This has been the fashion of the day. Without completely discarding them, we need to accept their positive aspects and adding inputs from the soil of Bharat we need to think of constructing a new model. Some efforts are going on in this direction through the present dispensation. This darshan of a powerful and prosperous Bharat is for the welfare and peace all over the world, which is all the more relevant today. To realise this, we need to explore relevant policy experiments. Though Bharat is primarily considered an agrarian nation, the plight of farmers is really sad. How can we find solutions to the problems of farmers in the light of philosophical direction shown by Deendayalji? Our inherent connectivity to Nature including agriculture and forests is the secret of our enriched life values and culture. We consider Nature an integral part of human life. We always lived as a unit in the world. Presently also, Bharat is primarily agrarian. Farmers and Vanvasis are true carriers of Bharatiya interests and way of life. Even policy reforms should follow them. While doing this, one thing should be clear that industries should also be in tune with our conventional wisdom. Before British started ruling us, 200 years ago, we were leaders both in agricultural and industrial production. Many researchers have proved with data that we integrated these two ways of production for thousands of years. After British ruining this tradition, we are also thinking in a fragmented way where we think agrarian and industry in isolation and antithetical to each other. This is typical a western approach. We need not carry either agrarian or industrial tag, we need both. All the policies should be such that even poorest of the poor farmer should come out of poverty. Landless labourer should not be forced to commit suicide. At the same time, to be relevant in the world, we need to move ahead in the field of industry and technology. Deendayalji said, necessary industrialisation should take place without deforestation and maximum utilisation of barren land. Once we should assess our need of agricultural land so that we can fulfil our needs and also ensure some food supplies to the world. We need to evaluate the forest covers to ensure environmental balance. Then how much land to allocate for the industry, can also be calculated. In this regard, Man. Sudarshanji, former RSS Sarsanghachalak, did an exemplary experiment in Jharkhand. Calling a group of Scheduled Tribes, he presented a technology of iron making with a small tandoor like mould. Taking such examples into account, we need to find new ways and do new experiments. American and European conditions are different. Therefore their systems of planning are different. They cannot be uniformly applied everywhere. Whatever is good with them we will definitely learn, but primarily we need to devise technology and policies as per our needs. I firmly believe that the integration of our technology, knowledge and tradition of Bharat can give a system, which can ensure happiness and welfare of all. In political science it is taught that pressure groups make democracy vibrant. Panditji believed that we need to take care of each other’s interests and move forward. How you see agitations such as demand for ‘One Rank, One Pension’ or reservations from the Integral humanist perspective? I do not think that Integral Humanism has negated the role of interest groups. Interest groups are formed because we have certain aspirations in democracy. At the same time, we should remember that through interest groups we should not strive to address those aspirations at the cost of others. We should have integral approach of welfare for all. It is sensible to realise that my interest lies in larger national interest. Government also has to be sensitive to these issues that there should not be any agitations for them. From the Integral Humanist perspective, the thinking that Government is different from us, should be altered. For instance, you need a fan on fast speed while I don’t want it at all, still we can both agree to have a fan on lesser speed. Harmonisation of interests is possible with this perspective. We can move forward with synchronisation and not struggle. My interest is in collective interest, should be realised by both, government and society. This balance is required from both sides. In fact, they are not two sides but just parts of the integral whole. Everyone should realise that suppression and oppression of one section by the other is against the interests of all. That should be the approach we need to inculcate. There seems to be a contradiction here. On the one hand you are saying that society is not that matured but at the same time you expect this weakest link to perform a transformative role. Don’t you think this is more ideal than practical? This may look impractical and difficult, but this is the only way forward. There is no alternative. Government has to formulate effective policies and society should be organised with integral perspective. These complementary processes have to go hand in hand. Political parties will have to resolve that ‘yes we can do this’. We have not tried this so could not achieve it. If both, social and political elites, accept this and strive in the same direction we can achieve this. Sometimes we will have to pass through difficult situations but we have to continue in the desired direction. For instance, while taking a route march with drums, we face a situation where instruments cannot be played, but marching has to be on by finding the alternate route. Finally, we have to synchronise again. This may look a small example but this is the right example as it reflects the mindset. People in power and those working in society together can make the nation stronger, not with struggle. Integral Humanism is the most practical approach, we have to walk a bit with this approach to realise it on the ground. Unless we demonstrate it through adequate experimentation we cannot prove the practicability of the same. There have been strains in the Centre-State relations. Sometimes in the name of special packages, while sometimes on identity issues. How can we find a way out to this problem through Integral Humanism? Emotional cordiality is the only solution to this. Both Centre and States are running governments for the Nation. Unitary states are constituents of the nation, they are not separate. As hands, legs or brain cannot claim that they are independent; similarly states are also integral parts of body politic. Until, this bonding is there, everything will be in line. Once special packages become a political tool and all other constituents feel that political blackmailing can take them forward then it leads to unhealthy competition. We need to logically justify and act for harmonious relations. You said integrity and honesty are the main parameters. Do you see any such policy initiative, undertaken or suggestive, which is in tune with Integral Humanism? Reservation for socially backward classes is the right example in this regard. If we would have implemented this policy as envisaged by the Constitution makers instead of doing politics over it, then present situation would not have arrived. Since inception it has been politicised. We believe, form a committee of people genuinely concerned for the interest of the whole nation and committed for social equality, including some representatives from the society, they should decide which categories require reservation and for how long. The non-political committee like autonomous commissions should be the implementation authority; political authorities should supervise them for honesty and integrity. Integral Humanism links education and education policy with both employability and sanskars (values for balanced life). Can you suggest some measures to reform the present education policy? First, if all we need to reform the prevalent thinking about education. All important education centres accept that education should be employable and at the same time it should produce good human beings. Post-Independence, we never thought of our own model of education based on our values. Whatever little suggestions were made, those were never implemented. Based on the integral approach, we need to completely transform the condition and direction of our education system. Education policy should focus on the making of good and motivated teachers, for which, interference of people in power in the field of education should reduce. Education should be based on truth; it should give confidence to the citizens. It should make us good human beings. I am not limiting education to what is provided in schools. Education should get conducive atmosphere in family and society as well. Deendayalji used to talk about society-centric education. We need to sincerely think and move forward in that direction.

Sunday, September 20, 2015

RSS-Vagish Issar: Secularism in India – 2 days columnist meet in Che...

RSS-Vagish Issar: Secularism in India – 2 days columnist meet in Che...: Secularism in India – 2 days columnist meet in Chennai A two day seminar on secularism for columnists was inaugurated in Chennai, Tamil ...
Secularism in India – 2 days columnist meet in Chennai A two day seminar on secularism for columnists was inaugurated in Chennai, Tamil Nadu on September 19th Saturday. The event, organised by Prachar Vibagh RSS was attended by more than 80 columnists from Southern states of India. The seminar was inaugurated by Sri Suresh ‘Bhaiyyaji’ Joshi (Sarkaryavah, All India General Secretary of RSS) with the introductory speech being delivered by Dr. Manmohanji Vaidya (All India Prachar Pramukh of RSS). While delivering the inaugural address Dr. Vaidya dwelt upon the origin of secularism from the west and how it has been twisted in the Indian context. He described that secularism evolved along the themes of separation of the Church and State in Europe and how since India doesn’t have a history of theocratic states, the concept of secularism is irrelevant in the Indian context. He also touched upon the historical constitutional debate between Sri K T Shah and Dr. Ambedkar, describing how Dr Ambedkar was against inclusion of the word Secular in the preamble of Indian Constitution as he felt India was naturally a secular society. He spoke in detail about the evolution of the concept of the Indian National Flag. Quoting the discussions of the Flag committee (constituted by Congress Working Committee in 1931), he explained how the stalwarts of the committee felt that representing different religions as colours of the national flag was in itself a communal thought and how the committee agreed that the Saffron flag with a blue Charka would be the best representation of the Indian ethos. He concluded stating that the perversion of the concept of secularism in India has resulted in the terming of nationalists as Communal and people with communal thinking being hailed as secular. He conveyed that the Bharatiya tradition has from time immemorial regarded all faiths and sects as one and that the artificial injection of secularism is not needed in a society as hospitable and assimilative as Hindu society. Eminent personalities such as Sri Balbir Punj (Vice President of BJP), Sri Prafulla Ketkar (Editor of Organiser), Sri N K Singh (Senior Journalist), Smt. Madhavi Diwan (Senior Advocate, Supreme Court) and Sri K G Suresh (Editorial Advisor, Doordarshan) presented their views on various aspects of Secularism within their respective domains such as politics, media and constitutional law. 2nd day Sri Bhiyyaji Joshi delivered the valedictory address today. He spoke about the confusions that prevail in the society such as the name of the nation (India Vs Bharat), Country Vs State Vs Nation, Citizen Vs National, Patriot Vs Friend of nation, Anti-national Vs Enemy of the nation, Invader Vs Native Ruler etc. Many of these confusions were infused by people with divisive interests including British and shallow political discourse. Current day democratic set up assumes to have absolute right over the public discourse which was not the case in pre-independent Indian society. There was a clear distinction between the rights and responsibilities of both the ruler and society. The same is needed now, for example government can impart education while the character building has to be done by the society. He also said that a secular state should not allow any sects or community to infringe upon the rights of other sects or communities. However, in Bharat today, the religious minorities are given preferential treatment. For example in Nagaland, Mizoram and Kashmir though the minority community is in majority, they enjoy all the privileges available to minorities. He concluded saying that a democracy is only successful if the people are self-aware, organised and active.

Monday, July 20, 2015

सोहन सिंहंजी में कभी अहंकंकार नहीं: मोहनराव भागवत -राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिश्ठ प्रचारक सोहन सिंह की स्मृति में तालकटोरा स्टेडियम में श्रद्धांजलि सभा का हुआ आयोजन राजधानी के तालकटोरा स्टेडियम में षनिवार षाम राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिश्ठ प्रचारक सोहन सिंह की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया। सभा में राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत, भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, विष्व हिंदू परिशद के संरक्षक अषोक सिंघल ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। सोहन सिंह जी का निधन गत 4 जुलाई को हुआ था। 5 जुलाई को निगम बोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। सोहन सिंह जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने कहा कि जगत में सदैव के लिए कोई नहीं आता। भगवान को भी जाना पड़ता है। कुछ लोग आते हैं और जीवन कैसा जीना बताते हैं। सोहन सिंह जी का स्वयंसेवकों के साथ परिवार जैसा संबंध था। कार्यकर्ताओं के बारे में जाँच पड़ताल करवाने वालों में से एक थे। उनके जाने से रिक्तता पैदा हुई है लेकिन ऐसे लोगों के प्रति उनका स्मरण और आगे चलने के लिए रखे। कैसे चलना उन्होंने हमें सिखाया। सभी वक्ताओं के उद्बोधन में करीब एक जैसी बातें थीं, चाहे उनका संबंध रहा हो या नहीं। सोहन सिंह जी के काम करने में कोई नाटक नहीं था। उन्होंने बड़ा होने के लिए कुछ नहीं किया। सहज और स्वाभाविक रूप से रहे। उनका अभिभावक का भाव था, चिंता जरूर करते थे। उनके मन में कभी भी अहंकार का भाव नहीं आया कि दूसरों को सिखाने वाला हूँ। उनसे संपूर्ण समर्पण हमें सीखना चाहिए। संघ के कार्यकर्ता को कैसा होना चाहिए, व्यवहार कैसा होना चाहिए यह भी हमें सीखना चाहिए। सोहन सिंह जी का स्मरण किया जा सकता है। उनके जीवन को अपने आचरण से जीवित रखना है। अपने जीवन से उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। उस परम्परा को आगे बढ़ाना है, उन्हें ज्यादा आनंद मिलेगा। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि सोहन सिंह जी से मेरा व्यक्तिगत और नजदीक का परिचय नहीं था लेकिन उनके बारे हर किसी ने यही कहा कि कर्मयोगी थे। उनके जीवन से लगता है कि साधारण कार्यकर्ता अपने जीवन में असाधारण कर सकता है। ऐसे व्यक्तित्व के बारे में सुनकर लगता है कि पद के कारण ही बड़ा नहीं हुआ जा सकता, अपनी कृतियों से भी बड़ा हो सकता है। अंतिम दिनों में भी उन्होंने किसी सहयोगी को सेवा के लिए नहीं लिया। भारत की संस्कृति का उपासक बड़े मन का होता है। बड़े मन का व्यक्ति ही आध्यात्मिक होता है। वे एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व थे। ऐसे व्यक्तित्व के लिए श्रद्धांजलि की जरूरत नहीं होती। ऐसे लोगों का व्यक्तित्व लोगों के लिए प्रेरणा बन जनता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रद्धांजलि के तौर पर संदेष भेजा। संदेष में कहा गया कि सोहन सिंह जी अपने जीवन में आचार संहिता के पालन में उंच-नीच नहीं होने दी। ऐसे व्यक्तित्व का चला जाना खालीपन का अहसास कराता रहेगा। संदेष आलोक कुमार ने पढ़कर सुनाया। विष्व हिन्दू परिशद के संरक्षक अषोक सिंहल ने कहा कि मेरा सोहन सिंह जी से परिचय 1953-54 में हुआ। उनके द्वारा निर्मित कार्यकर्ताओं का जीवन भी उनकी तरह ही कठोर रहा। उस काल में प्रचारक पद्धति की आवष्यकता थी और सोहन सिंह प्रचारक बने। वे स्वतंत्रता से पूर्व प्रचारक निकले। व्यतिगत संबंध ज्यादा नहीं आया लेकिन जितना भी संबंध आया उससे यही कहा जा सकता है वे कर्म कठोर थे। उनका जीवन जैसा जीवन आज हो तो देष फिर से अच्छी स्थिति में पहुंच सकता है। उत्तर क्षेत्र के संघचालक डाॅ बजरंग लाल गुप्त ने कहा कि व्यक्ति निर्माण कला के मर्मज्ञ थे। सैकड़ों कार्यकर्ताओं को उन्होंने गढ़ा। कार्यकर्ताओं की खूब संभाल करते थे। वे कर्तव्य कठोर थे। अत्यंत परिश्रम करते थे, बहुत लोगों ने देखा होगा। एक वर्ग में रात के वक्त स्वयं घड़ों में पानी भरा। स्वयं के लिए बहुत कठोर थे। अस्वस्थता के बारे में किसी से कुछ नहीं बोलते थे। अंतिम दिनों में भी खुद से ही अपने कपड़े धोए। ऐसे श्रेश्ठ कार्यकर्ता का जीवन हमें प्रेरणा देता रहेगा। समारोह में रेवासा पीठाधीष्वर संत राघवाचार्य वेदांती और राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुरेष चंद्र ने भी श्रद्धांजलि अर्पित की। समारोह में राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह सुरेष सोनी, दत्तात्रेय होसबले, अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य, सह प्रचार प्रमुख जे नंद कुमार, अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख अरुण कुमार, अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख सुरेष चंद्र, उत्तर क्षेत्र के क्षेत्र संघचालक डाॅ बजरंग लाल गुप्त, दिल्ली के प्रांत संघचालक कुलभूशण आहुजा, पंजाब के प्रांत प्रचारक किषोर कांत, दिल्ली के प्रांत प्रचारक हरीष चंद्र, भारत सरकार के केंद्रीय मंत्री डाॅ हर्शवर्धन, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर बीजेपी के राश्ट्रीय संगठन मंत्री रामलाल, प्रदेष संगठन मंत्री सिद्धार्थन, षिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के अतुल कोठारी, दीनानाथ बत्रा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिशद के संगठन मंत्री सुनील अंबेकर आदि समेत सैकड़ों की तादाद में संघ के स्वयंसेवक और संघ से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ता मौजूद थे। कार्यक्रम के समापन पर सभी ने मौन रखने के बाद षांति मंत्र किया। राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सह प्रांत संघचालक आलोक कुमार ने मंच संचालन किया।

Thursday, July 2, 2015

धारा ३७० मात्र एक अंतरिम व्यवस्था, कोई विशेष दर्जा या शक्ति नहीं : अरुणकुमार ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० नागपुर, दि. ३० जून धारा ३७० द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा या शक्ति प्राप्त है, यह मात्र एक भ्रम है. वास्तव में धारा ३७० उस समय की राज्य की स्थिति को देखते हुए की गई अंतरिम व्यवस्था है, ऐेसा प्रतिपादन जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर के निदेशक अरुणकुमार ने किया. वे आर. एस. मुंडले धरमपेठ कला-वाणिज्य महाविद्यालय एवं जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर नागपुर द्वारा महाविद्यालय के वेलणकर सभागृह में ‘जम्मू-कश्मीर : तथ्य और विपर्यास’ इस विषय पर आयोजित कार्यशाला में बोल रहे थे. अपना मुद्दा स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, जम्मू-कश्मीर का जब भारत में विलय हुआ, तब वहॉं युद्ध चल रहा था. उस समय की व्यवस्था के अनुसार वहॉं संविधान सभा बन नहीं सकती थी. १९५१ में वहॉं संविधान सभा का निर्वाचन हुआ और इस संविधान सभा ने ६ फरवरी १९५४ को राज्य के भारत में विलय की पुष्टी की. १४ मई १९५४ को भारत के राष्ट्रपति ने संविधान के अस्थायी अनुच्छेद (धारा) ३७० के अंतर्गत संविधान आदेश जारी किया और वहॉं कुछ अपवादों और सुधारों के साथ भारत का संविधान लागू हुआ. इसके बाद यह धारा समाप्त कर जम्मू-कश्मीर में भी भारत का सामान्य संविधान लागू होना अपेक्षित था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. क्योंकि, धारा ३७० के कुछ प्रावधान अन्य राज्यों के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन करनेवाले है लेकिन जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं के राजनितिक लाभ लिए लाभकारी है. अत: उनका धारा ३७० कायम रखने का आग्रह है. लेकिन इस धारा ३७० के कारण, १९४७ में पाकिस्तान से राज्य में आए हिंदू शरणार्थी तथा भारत के अन्य राज्यों से वहॉं जाकर वर्षों से रहनेवाले लाखों नागरिक राजनितिक, आर्थिक और शिक्षा से संबंधि अधिकारों से वंचित है. वहॉं अनुसूचित जनजाति के नागरिकों को भी राजनितिक आरक्षण नहीं मिलता. आज भी वहॉं भारतीय संविधान की १३५ धाराऐं लागू नहीं है. जम्मू-कश्मीर स्टडी सेंटर के सचिव आषुतोष भटनागर ने राज्य के स्थिति की जानकारी देते हुए बताया कि, ८० के दशक के अंत में जम्मू-कश्मीर में शुरु हुआ हिंसाचार अब बहुत कम हुआ है. राज्य का करगिल, लेह, लद्दाख, जम्मू यह बहुत बड़ा क्षेत्र अलगाववाद से दूर और शांत है. श्रीनगर और घाटी के कुछ क्षेत्र में अलगाववादी कुछ सक्रिय है. लेकिन उनकी गतिविधियों को मीडिया में अतिरंजित प्रसिद्धि मिलती है, इस कारण पूरे राज्य में अशांति है, ऐसा गलत चित्र निर्माण होता है, यह वहॉं के वास्तव के विपरित है. दोनों ही वक्ताओं ने नागरिकों से आवाहन किया है कि, लोग जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति को जाने और वहॉं संपूर्ण सामान्य स्थिति निर्माण करने में सहयोग दे. धरमपेठ शिक्षण संस्था के उपाध्यक्ष रत्नाकर केकतपुरे की अध्यक्षता में हुई इस कार्यशाला में अतिथियों का स्वागत प्रा. संध्या नायर और मीरा खडक्कार इन्होंने किया, कार्यक्रम का संचालन पत्रकार चारुदत्त कहू ने और आभार प्रदर्शन डॉ. अवतार कृशन रैना ने किया. इस कार्यशाला में शहर के गणमान्य पत्रकार, शिक्षाविध, राज्यशास्त्र के अभ्यासक और विधि शाखा के जानकार उपस्थित थे|

Sunday, June 21, 2015

Indian culture is priceless heritage "yoga" schools Dattatreya Hosbale Varanasi 21 June Nivedita "Iacsha House Girls Inter College, Tulsipur, Mahmurganj Antrra'tryy yoga in the yoga program on Day Mohan Madhukar Bhagwat 0 Ra'tryy RSS chief Ma Ji popularly attended mass in the presence of volunteers. Speaking on the occasion, the association's co-general secretary Dattatreya Yoga program Hosbale G said that the sum of the precious heritage of Indian culture. Yoga means to add, the sum of asana, pranayama, and is not limited to therapy. Yoga Mind perceived "by the body, Mnu'y from nature, the idea of karma and that means the union of the soul with God the Father. He nailed the whole sum V "and is prevalent. Yoga meditation as India, China and Japan in the original "Jane", is known. Thousands War'a already Hri'ia-sages throughout the sum V "and attempted to disperse. Yoga V "and known by many names in-the Patanjali Yoga, Hatha Yoga, yoga rhythm, Jain yoga, Buddhist yoga. V "and also celebrates Indian culture and its significance is understood. That is why the United Ra'tr Union some War'a the first Veda V "and acknowledged as heritage. Ma Ji 0 Dattatreya God "because God told Iav the Adiyog Guru" Iav only seven Hri'iayon A'tang sum rate of the first "made science. The importance of yoga in our ma PM 0 V during his US trip "and put to their attention and made Akar'iat. Later in December the United Ra'tr association meeting to give yoga 177 "bags, send Priest.If got recognition of V on June 21," and it was decided to celebrate Yoga Day. Ralswksng Nagpur in March 2015 in the House of Representatives held its All-India meeting in commemoration of a proposal by the United Ra'tr Union decision to give all "Awasion was urged to participate in the Yoga Day. Hundreds day they "are celebrating the Day Yoga test of pride for all of us Indians have Vi'ay. The Association of Central Officer major cum general secretary Dattatreya Hosbale G 0 ma, ma Madhubhai Kulkarni 0 G, ma 0 Indrae "test Kumar, Anil Oak Ma 0 g and regional, provincial and district activists attended.

Saturday, May 9, 2015

अर्ध सत्य दिखाना देश, समाज के साथ धोखा – डॉ कृष्ण गोपाल जी नई दिल्ली 9 मई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि वर्तमान में पत्रकारिता का क्षेत्र सुनामी के दौर से गुजर रहा है. समाचार जगत में मान-सम्मान, चकाचौंध सबकुछ है, पर, इसमें यथार्थ और सत्यता को भी टिकाए रखना है. वर्तमान समय में समाचार को सनसनीखेज बनाने की कोशिश करते हैं, आधे सत्य पर पर्दा डालकर आधा सत्य दिखाने से द्वेष की भावना बढ़ती है, देश की छवि को नुकसान पहुंचता है, यह देश और समाज के साथ धोखा भी है. समाचार में सनसनी पैदा करना समाचार की पवित्रता के भी विपरीत है. उन्होंने कहा कि महर्षि नारद पत्रकार जगत के आदि पुरुष हैं. किसी भी लोभ-लालच से दूर, संपत्ति संचयन से दूर, निस्वार्थ भाव, हर व्यक्ति से संबंध, निरंतर भ्रमणशील, और सभी को खबर देने का कार्य करते थे. वर्तमान में आदर्श समाचार पत्रों में नारद जी के यह गुण विद्यमान होते हैं. पत्रकारिता लोभ-लालच से दूर, निस्वार्थ होनी चाहिए. सह सरकार्यवाह इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र दिल्ली द्वारा कांस्टीट्यूशन क्लब में नारद जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित पत्रकार सम्मान समारोह को मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित कर रहे थे. कार्यक्रम में सेंट्रल यूरोपियन न्यूज के इंडिया एडिटर शांतनु गुहा रॉय विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे. मुख्य अतिथि व विशिष्ट अतिथि ने दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया. इस अवसर पर डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने इन्द्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के नये वेब पोर्टल “www.ivskdelhi.com” का उद्घाटन किया. कृष्ण गोपाल जी ने कहा कि समाचार जगत (मीडिया क्षेत्र) त्याग, परिश्रम, निष्ठा, समर्पण की भूमिका से खड़ा होता है. देश में अनेक महानुभावों ने अपने योगदान, बलिदान से समाचार जगत को यशस्वी बनाया है. कीर्तिमान स्थापित किए हैं. देश में समाचार पत्रों की महान परंपरा रही है. पराधीनता के दौर में भी सत्य के अन्वेषण के लिये अनके लोग खड़े हुए. सत्य को जनता के समक्ष लाने, सत्य के अन्वेषण को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया. उन्होंने अंग्रेजों की लूट का देशहित में निर्भीकता के साथ खुलासा किया. मदन मोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, सरीखे अन्य व्यक्तित्व देश हित में सोचते थे, उनमें सत्य के अन्वेषण का जुनून था, परिश्रम और बलिदान के लिये हमेशा तैयार रहते थे. अंग्रेज सरकार अत्याचार करती थी, लेकिन समाचार जगत का स्तंभ प्रामाणिकता के साथ देश में खड़ा रहा. सूची में एक नाम नहीं, कई बड़े नाम शामिल हैं, समाचार पत्रों के संपादकों ने जेल की यात्रा की, अत्याचार सहन किए. देश हित में, सत्य के अन्वेषण के लिये कुछ लोगों ने अपनी संपत्ति बेचकर समाचार पत्र निकाला, कमाई करने या संपत्ति बनाने के लिये नहीं. डॉ कृष्ण गोपाल जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि मीडिया ने चार चर्चों पर हमले के मामलों को बढ़ा- चढ़ाकर प्रस्तुत किया, जिससे विश्व में भारत की छवि अल्पसंख्यकों के प्रति नकारात्मक रूप में सामने आई, मानों अल्पसंख्यकों के साथ बुरा हो रहा हो. मीडिया ने समाचार में आधा सत्य छिपाया, पुलिस के अनुसार इसी अवधि के दौरान 458 मंदिरों, 25 मस्जिदों पर भी हमले हुए, मीडिया को इन आंकड़ों को भी सामने रखना चाहिए था. इसी प्रकार मीडिया में महिलाओं के प्रति अत्याचारों को भी बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जाता है, सनसनी फैलाने के लिये जाति का उल्लेख किया जाता है, मानो पूरा समाज ही बुरा हो. यूरोपीय देशों में महिलाओं के प्रति अत्याचारों का प्रतिशत हमसे काफी अधिक है, लेकिन वहां का मीडिया सनसनी नहीं फैलाता, इससे हमें सीख लेने की आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि सकारात्मक व सत्यता पर आधारित समाचारों से समाज का विश्वास भी बढ़ता है, समाचार जगत की पवित्रता की श्रेष्ठता भी बनी रहती है. क्षेत्र की चुनौतियों के समाधान पर मिलकर कार्य करना है, साथ ही समाचार की महत्ता, सत्यता पर विवेक के साथ विचार करना है. कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि एवं इंडिया एडिटर सेंट्रल यूरोपियन न्यूज के शान्तनु गुहा रॉय ने कहा कि हम खबर की खोज में काफी पीछे छूट गए हैं, खबर खूंढने, तलाशने का काम कम कर दिया है. उन्होंने कहा कि मीडिया का गलत उपयोग कहीं न कहीं मालिक ही करते हैं, रिपोर्टर नहीं. हमारा मीडिया एग्रेसिव व प्रोग्रेसिव है, लेकिन हम बेलेंस क्रिएट नहीं कर पा रहे हैं. कार्यक्रम में मानुषी की संस्थापक संपादक मधु पूर्णिमा किश्वर, फोटो जर्नलिस्ट संकर्शन मलिक, टीवी रिपोर्टर यतेंद्र शर्मा, सोशल मीडिया एक्टिविस्ट प्रवीण शुक्ला को नारद सम्मान 2015 से सम्मानित किया गया. कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपयी जी के मीडिया सलाहकार रहे अशोक टंडन जी, भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक एसएम खान, आईटीएमएन के संपादक विक्रम बहल जी, आगरा विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. के एन त्रिपाठी, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय की प्रो वाइस चांसलर डॉ.पुष्पा त्रिपाठी, भारत प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री विजय कुमार, पाञ्चजन्य के संपादक श्री हितेश शंकर, ऑर्गनाइजकर के संपादक श्री प्रफुल्ल केतकर सहित अन्य गणमान्यजन उपस्थित थे. समारोह का संचालन श्री विवेक सिन्हा ने और धन्यवाद ज्ञापन इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केन्द्र के सचिव श्री वागीश ईसर ने किया. New Delhi/ May 09, 2015: The principles followed by Devrishi Narad in his news gathering pursuit should be the ideal for every Journalist across news organisations, said Dr Krishn Gopal ji, SahSarkyavah (Joint General Secretary) of the RSS. Shri Krishn Gopal ji was speaking at the Narad Jayanti celebrations organised by the Indraprastha Vishwa Samvad Kendra on Saturday. Indraprastha Vishwa Samvad Kendra celebrated the Narad Jayanti by felicitating journalists and honouring their commitment and contribution towards the betterment of the society. The felicitation ceremony was attended by around 150 people that included several Journalists. Shri Shantanu Guha Ray, India Editor of Central European News was the Special Guest at the occasion who shared the dais with Dr Krishn Gopal ji. “Devrishi Narad was away from greed, was never interested in amassing personal wealth and yet he worked tirelessly to gather news and pass it on. His only concern was welfare of everyone,” said Dr Krishn Gopal ji. He added that News & Media organisations are built on the pillars of sacrifice, dedication and commitment of Journalists. “Our country has the tradition of sacrifices being made by nationalist people whose only motive was betterment of society. Even before independence, one can read countless accounts wherein several righteous people stood up for truth, dared to speak truth and brought it in the cognizance of countrymen,” said Dr Krishn Gopal ji. He further explained that these patriotic journalists and writers exposed the loot carried by the British of our country. “They were not afraid of being sent to jail for the expose of the British raj. We can read about the commitment and dedication of great men such as Madan Mohan Malviya, Ganesh Shankar Vidyarthi and Maharishi Arvind, among several others. We can easily add several other names to this list.” He added that these great men pursued their reportage and journalism even if they had to sell off their personal properties to sustain their newspapers. “They never used their newspapers as a vehicle for amassing personal wealth.” Dr Krishn Gopal ji said that at present media is going through a Tsunami like crisis. “There is a trend in present times to try and make the news sensational, show only half-truth that fosters hatred across different sections of the society. This not only creates fissures in the society but also damages the image of our country. Sensationalism is contrary to the piety of news.” Citing an example of news coverage of the theft in four churches, Dr Krishn Gopal ji said that news organisations presented a distorted and half-truth of this unfortunate incident. “According to police, around 458 temples, 25 mosques also reported cases of theft. Yet media chose to report only about the theft cases of 4 churches which was made out as a systematic attack on churches. This sent a wrong and distorted message that minorities are being systematically attacked in our country. This is completely false. Media should have reported complete facts. All attacks on any religious institution are unfortunate but to present only one side is not correct and it divides the society.” Dr Krishn Gopal ji also explained that news reports that are based on truth helps increase self-confidence of the society. Shri Shantanu Guha Ray ji was the Special Guest at the event. “The owners of Media organisations are the ones who are largely responsible for the mess that our country’s media is in today.” He added that the maddening race for TRPs has created a viscious cycle of sensationalism for our News Channels. The Founder Editor of Manushi Sushree Madhu Purnima Kishwar, Shri Yatendra Sharma, Senior Special Correspondent India News, Photo Journalist Shankarhsan Malik and Social Media Activist Praveen Shukla were felicitated with the Narad Samman at the function.