Tuesday, November 17, 2015

माननीय अशोक जी सिंघल का मेदांता अस्पताल गुड़गांव में निधन: सम्पूर्ण जीवन हिन्दू धर्म के लिए खपा देने वाले महान देश भक्त काे नमन, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.....

Wednesday, November 4, 2015

Condolence message of Shri Datta Hosabale, Sah Karyavah, RSS:Nov, 4, 2015 I'm saddened to read the very shocking news of the demise of Shri Narain Kataria ji this early morning. My deep condolences to his family. Narain Kataria ji's death is an irreparable loss to the entire Hindu world. Narain Kataria ji was a relentless crusader for the cause of anything that was related to Hindu interest. A survivor of the holocost of the Partition of Bharat, he had made the democratic fight for Hindus his life mission. Though old by age, he was young in his thoughts, spirits and action that would shame even youngsters. He, being a warrior for Dharma, founded, along with his friends and associates, a few fora to carry on various public activities which have become dependable supporters and shelters in US for Hindus world over. He was a very kind, affable and lovable human being. He practiced the message of Bhagavad Geeta in life in every aspect. He was a jnan yoddha, a karmayogi and a stitapragna. It is nigh impossible to fill the void created by his passing away. The fate has turned the coming Deepavali a dark one. During my visits to USA I had met him on several occasions and also participated in programs organized by him and enjoyed his hospitality. Recently I had a telephonic conversation with him. I, on behalf of Rashtriya Swayamsevak Sangh, and millions of Swayamsevaks, with a heavy heart pay tributes- shraddhanjali- to this great son of Bharatmata and pray the almighty to bestow sadgati on the departed soul. Om Shantih. DATTA HOSABALE Sah Sarkaryavah, RSS

Monday, November 2, 2015

नरेन्द्र मोदी के विरोध की नपुंसक राजनीति-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री जब लड़ाई शुरु होती है तो सेना के विशेषज्ञ प्रथम रक्षा पंक्ति के ध्वस्त हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुये द्वितीय रक्षा पंक्ति और उससे भी आगे तृतीय रक्षा पंक्ति तक की तैयारी करके रखते हैं । उसी की तर्ज़ पर क्म्युनिस्ट पार्टियाँ दुनिया भर में लोकयुद्ध की तैयारी करती हैं । कम्युनिस्टों की इस रणनीति की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि उनके लोक युद्धों में सामान्य आदमी या 'लोक' सदा ग़ायब रहता है । लेकिन साम्यवादियों का दावा रहता है कि लोक मानस को सबसे ज़्यादा वही जानते हैं । यह अलग बात है कि लोक मानस को समझ पाने का उनका दावा इतिहास ने सदा झुठलाया है । भारत विभाजन के समय वे मुस्लिम लीग के साथ थे और पाकिस्तान निर्माण के समर्थक थे । 1942 में अंग्रेज़ो भारत छोड़ो के आन्दोलन के समय वे अंग्रेज़ों के साथ थे और भारतीय मानस को समझने का दावा भी कर रहे थे । 1962 में चीन के आक्रमण में वे चीन के साथ थे और फिर भी भारत के लोगों के मन को समझने का दावा कर रहे थे । 1950 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के सभी समूहों को मिला कर वे लगभग साढ़े पाँच सौ की लोक सभा में वे पचास से ज़्यादा सीटें कभी जीत नहीं सके , फिर भी उनका दावा रहता है कि भारतीय जन के असली प्रतिनिधि वही हैं । कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में वे लोकतांत्रिक पद्धति से कभी जीत नहीं सकते , इसलिये तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति से लेकर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके जम्मू कश्मीर को अलग स्वतंत्र राज्य बनाने के प्रयास करते रहे । लेकिन जन विरोध के कारण वे वहाँ भी असफल ही रहे । तब उन्होंने अपनी रणनीति बदली और कांग्रेस में घुस कर वैचारिक प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करने में लग गये । उसमें उन्होंने अवश्य किसी सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली । कांग्रेस को भी उनकी यह रणनीति अनुकूल लगती थी । इससे कांग्रेस को अपनी तथाकथित प्रगतिशील छवि बनाने में सहायता मिलती रही और कम्युनिस्टों को बौद्धिक जुगाली के लिये सुरक्षित आश्रयस्थली उपलब्ध होती रही । लेकिन इन आश्रयस्थलियों में सुरक्षित बैठकर बौद्धिक जुगाली करते इन तथाकथित साहित्यकारों , रंगकर्मियों , फिल्मनिर्माताओं और इतिहासकारों में एक अजीब हरकत देखने में मिलती है । भारतीय इतिहास, संस्कृति , साहित्य इत्यादि को लेकर जो अवधारणाएँ ,अपने साम्राज्यवादी हितों के पोषण के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचलित की थीं , ये भलेमानुस भी उन्हीं की जुगाली कर रहे हैं , जबकि रिकार्ड के लिये साम्यवादी जनता में यही प्रचारित करते हैं कि उनके जीवन का अंतिम ध्येय ही साम्राज्यवाद की जड़ खोदना है । भारत में यह विरोधाभास आश्चर्यचकित करता है । ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को लेकर जो अवधारणाएं स्थापित कर रहे थे , वे भारतीयता के विरोध में थीं । उनका ध्येय भारत में से भारतीयता को समाप्त कर एक नये भारत का निर्माण करना था , जिस प्रकार चर्च ने यूनान में यूनानी राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये यूनान का निर्माण कर दिया और इस्लाम ने मिश्र में वहाँ की राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये वर्तमान मिश्र का निर्माण कर दिया । इसी को देख कर डा० इक़बाल ने कभी कहा था--- यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहाँ से । इस मिटने का अर्थ वहाँ की राष्ट्रीयता एवं विरासत के मिटने से ही था । इसी का अनुसरण करते हुये ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुस्तान को भी बीसवीं शताब्दी का नया यूनान बनाना चाहते थे । उस समय की कांग्रेस में उन्होंने ऐसे अनेक समर्थक पैदा कर लिये थे जो भारतीयता को इस देश की प्रगति में बाधा मानकर , उसे उखाड़ फेंककर , यूनान की तर्ज़ पर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । कांग्रेस में पंडित नेहरु इसके सरगना हुये । कम्युनिस्ट भी इसी अवधारणा से सहमत थे , इसलिये इस मंच पर बैठने वाले वे स्वाभाविक साथी बने । इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा तैयार किये गये इस वैचारिक अनुष्ठान में कांग्रेस और कम्युनिस्ट स्वाभाविक साथी बने । ज़ाहिर है भारत में भारतीयता विरोधी यह वैचारिक अनुष्ठान ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों ने तैयार किया था , इसलिये इसकी सफलता के लिये वे 1947 से ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से दूर व नज़दीक़ से इसकी सहायता करते रहे । कहना न होगा , जहाँ तक सांस्कृतिक व इतिहास के फ़्रंट की लड़ाई का प्रश्न है , भारत में कम्युनिस्ट इच्छा से या अनिच्छा से ब्रिटिश -अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों का मोहरा बन गये । भारतीय राजनीति का पिछले तीस साल का कालखंड तो इस मोर्चा के लिये अत्यंत लाभकारी रहा और वे भारतीयता के विरोध को ही भारत की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने में कामयाब हो गये । इसका कारण केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति का वर्चस्व स्थापित हो जाना था । भारतीयता विरोधी विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिये यह समय सबसे अनुकूल रहा । लेकिन २०१४ में भारतीयों ने तीस साल के बाद लोकतांत्रिक पद्धति से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के इस संयुक्त मोर्चा को ध्वस्त कर दिया । पहली बार लोक सभा में किसी एक राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । कम्युनिस्टों के लिये सबसे कष्टकारी बात यह थी कि यह बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला । जिन राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध को कम्युनिस्टों ने अपने अस्तित्व का आधार ही बना रखा था , उन्हीं राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन में भारत के लोग एकजुट होकर खड़े हो गये । कम्युनिस्टों की आश्रयस्थलियां नष्ट होने के कगार पर आ गईं । इतने साल से जिस स्वप्न लोक में रहते रहे और उसी को धीरे धीरे यथार्थ मानने लगे थे , उसे भारत की जनता ने एक झटके में झटक दिया । भारतीय मानस को समझ लेने का उनका दावा ख़ारिज हो गया । दरबार उजड़ गया । भारत के इतिहास और संस्कृति की साम्राज्यवादी व्याख्या पर ख़ुश होकर राजा सोने की अशर्फ़ी इनाम में देता था , वह राजपाट लद गया । लगता है दरबार के उजड़ जाने पर , उसके आश्रितों की फ़ौज विलाप करती हुई राजमार्ग पर निकल आई हो । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की यह फ़ौज अब अंतिम लड़ाई के लिये मैदान में निकली है । इतिहास इस बात का गवाह है कि वे लोकतंत्र में भी अपनी लड़ाई लोकतांत्रिक तरीक़ों से नहीं लड़ते । पहली रक्षा पंक्ति में उनका विश्वास ही नहीं है । लोकतंत्र में वही रक्षापंक्ति लोकतांत्रिक होती है क्योंकि इसी में लोग अपने मत का प्रयोग करते हुये अपना निर्णय देते हैं । कम्युनिस्ट जानते हैं कि इस रक्षा पंक्ति पर उनकी हार निश्चित है इसलिये दबाव बनाने के लिये वे दूसरी तीसरी रक्षा पद्धति का निर्माण बहुत मेहनत से करते हैं । लेकिन ये रक्षा पंक्तियाँ शुद्ध रुप से ग़ैर लोकतांत्रिक तरीक़ों से गठित होती हैं । जिस प्रकार आतंकवादी अपनी लड़ाई में बच्चों को , स्त्रियों को चारे के रुप में इस्तेमाल करते हैं , उसी प्रकार कम्युनिस्ट अपनी लड़ाई में कलाकारों , लेखकों , साहित्यकारों , चित्रकारों , इतिहासकारों का प्रयोग हथियार के रुप में करते हैं । लेकिन इस काम के लिये वे सचमुच साहित्यकारों , कलाकारों या इतिहासकारों का प्रयोग करते हों , ऐसा जरुरी नहीं है । क्योंकि कोई भी साहित्यकार या इतिहासकार आख़िर कम्युनिस्टों की इस ग़ैर लोकतांत्रिक लड़ाई में हथियार क्यों बनना चाहेगा ? इसलिये कम्युनिस्ट अत्यन्त परिश्रम से अपने कैडर को ही साहित्यकार, इतिहासकार, और सिनेमाकार के तौर पर प्रोजैक्ट करते रहते हैं , ताकि इस प्रकार के संकटकाल में उनका प्रयोग किया जा सके । भारत में कम्युनिस्टों को इस काम में सत्तारुढ कांग्रेस से बहुत सहायता मिली । अपने लोगों को विभिन्न सरकारी इदारों से समय समय पर पुरस्कार दिलवा कर उनका रुतबा बढ़ाया गया । पिछले साठ साल से कम्युनिस्ट भारत में यही काम कर रहे थे । इसलिये उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त या फिर जिनका रुतबा बढ़ गया हो , ऐसे लोगों की एक छोटी मोटी फ़ौज तैयार हो गई है । अब कांग्रेस के परास्त होने के कारण कम्युनिस्ट भी एक प्रकार से अनाथ हो गये हैं । बहुत मेहनत से तैयार की गई चरागाहों से बाहर होने की संभावना बिल्कुल सामने आ गई है । राष्ट्रवादी शक्तियाँ भारतीय परिप्रेक्ष्य में मज़बूत हो रही हैं । कम्युनिस्टों के लिये अपने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है । इसलिये उन्होंने रिज़र्व में रखी अपनी फ़ौज मैदान में उतार दी है । सबसे पहले उन साहित्यकारों की बटालियन मैदान में उतारी गई जिन्हें लम्बे अरसे से पुरस्कार खिला खिला कर पाला पोसा गया था । उन्होंने अपने इनाम इकराम लौटाने शुरु किये । बैसे तो अनेक लोगों के बारे में भारत की जनता को भी पहली बार ही पता चला कि वे भी साहित्यकार हैं । इनमें से कुछ साहित्यकार तो ऐसे हैं जिनके 'अमर साहित्य' की चर्चा केवल 'आई ए एस सर्किल' में ही होती है । अनेक साहित्यकार अपने लिखें को अपने परिवार वालों को सुना कर ही संतोष प्राप्त करते हैं । शेष पार्टी के कैडर में गा गाकर तालियाँ बटोरते हैं । रही बात पुरस्कारों की , तो अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों को ' की कहावत का अर्थ हिन्दी वालों को इनको पुरस्कार मिलते देख कर ही समझ में आया । कम्युनिस्टों को भ्रम था कि इससे देश में कोहराम मच जायेगा । लेकिन ऐसा न होना था और न ही हुआ । कोहराम उनसे मचता है जिनका देश की जनता पर कोई प्रभाव हो । कुछ दिन अख़बारों में हाय तौबा तो मचती रही , इलैक्ट्रोंनिक चैनलों पर बहस भी चलती रही । लेकिन कम्युनिस्ट भी समझ गये थे कि यह पटाखा आवाज़ चाहे जितनी कर ले , ज़मीन पर इस का प्रभाव नगण्य ही होगा । इसलिये कुछ दिन पहले मैदान में दूसरी बटालियन उतारी गई । यह बटालियन उन लोगों की थी जो फ़िल्में बगैरह बनाते हैं । कई लोगों की फ़िल्में तो जनता देखती भी हैं , लेकिन इनमें से कई निर्माता ऐसे भी हैं जिनको अपनी फ़िल्मों के लिये दर्शक भी स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं । पर क्योंकि ऐसे निर्माता विदेशों से कुछ इनाम आदि बटोर ही लेते हैं इसलिये सजायाफ्ता की तरह इनामयाफ्ता तो कहला ही सकते हैं । वैसे कम्युनिस्टों की रणनीति में अच्छा फ़िल्म निर्माता वही होता है जिसकी फ़िल्म से आम जनता दूर रहती है । रामानन्द सागर कम्युनिस्टों की दृष्टि में अच्छे और प्रतिनिधि निर्माता नहीं थे क्योंकि उनके धारावाहिक रामायण को देखने के लिये इस देश की जनता अपना सारा काम काज छोड़ देती थी । साहित्यकारों के मोर्चे पर फ़ेल हो जाने के बाद इन फ़िल्म निर्माताओं ने रणभूमि में शक्तिमान की तरह मुट्ठियाँ तानते हुये प्रवेश किया । उनको लगता होगा कि उनको देखते ही देश की जनता उनके साथ ही मुट्ठियाँ भींचते हुये सड़कों पर निकल आयेगी लेकिन हँसी ठिठोली के अलावा इस अभियान में से कुछ नहीं निकला । कुछ दिन उन्होंने भी अपने इनाम बारह वापिस करने में लगाये । उसका हश्र भी वही हुआ जो मेहनत से पाले पोसे तथाकथित साहित्यकारों का हुआ था । अब उतरी है ढोल नगाड़े बजाते हुये अंतिम वाहिनी । यह वाहिनी स्कूलों , कालिजों व विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके उन अध्यापकों की है जो इतिहास पढ़ाते रहे हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके इरफ़ान हबीब इस सेना के आगे आगे झंडा लहराते हुये चल रहे हैं । उनके साथ रोमिला थापर तो है हीं । के एम पणिक्कर और मृदुला मुखर्जी दायें बायें चल रहे हैं । उनका कहना है कि देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है लेकिन नरेन्द्र मोदी चुप हैं , बोलते नहीं । उनको बोलना चाहिये । इरफ़ान हबीब यह नहीं बताते कि यह साम्प्रदायिकता कौन फैला रहे हैं । इरफ़ान भाई अच्छी तरह जानते हैं कि यह साम्प्रदायिकता उन्हीं की सेना के लोग फैला रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सहायता से खड़ी की गई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इसकी शुरुआत हुई थी । इरफ़ान भाई अलीगढ़ विश्वविद्यालय का इतिहास तो जानते ही होंगे ? देश को बाँटने , विभिन्न फ़िरक़ों को आपस में लड़ाने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का कार्य इरफ़ान भाई की यही सेना कर रही है । लेकिन आज हिमाचल प्रदेश के इतिहासकार कहे जाने वाले विपन चन्द्र सूद की बहुत याद आ रही है । कुछ साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गये । नहीं तो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के साथ मिल कर वही त्रिमूर्ति का निर्माण करते थे । आज होते तो इनके साथ चलते हुये अच्छे लगते । नाचते गाते हुये साम्यवादी खेमे में इतिहासकार कहे जाने वाले ये लोग भी निकल जायेंगे । कुछ देर तक जनता का मनोरंजन होता रहेगा । लेकिन इससे भारत की राष्ट्रवादी शक्तियाँ और भी मज़बूत होकर निकलेंगी क्योंकि उनके पीछे देश की जनता है ।

Sunday, November 1, 2015

अखिल भारतीय कार्यकारिणी मंडल की बैठक संपन्न 1 अक्टूबर, रांची/नई दिल्ली (इंविसंके)। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीन दिवसीय अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक के अंतिम दिन रविवार को सरकार्यवाह मा. सुरेश (भय्याजी जी) जोशी ने बैठक स्थल के समीप बने मिडिया गैलरी में पत्रकार वर्ता को संबोधित किया। सबसे पहले उन्होंने मीडिया को बधाई देते हुए कहा कि सभी ने सकारात्मक समाचार प्रकाशित कर समाज को सही संदेश दिया है। उन्होंने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा कि संघ का 90 वर्षों के सामाजिक जीवन का अनुभव है। संघ के कार्यों को सकारात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है। पिछले कुछ दिनों में देश की कुछ शक्तियों द्वारा हिन्दू समाज को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। सबके प्रति सम्मान की भावना रखने वाले संघ पर गलत आरोप लग रहे हैं जो निंदनीय है। इसके बाद उन्होंने कहा कि संघ की वर्ष में दो प्रमुख बैठकें होती है जिसमें हम संघ के कार्यों की समीक्षा करते है। एक बैठक मार्च में प्रतिनिधि सभा की होती है और दूसरी बैठक अक्टूबर-नवम्बर के बीच कार्यकारी मंडल की होती है। इस बार हुई कार्यकारी मंडल की बैठक में हमलोगों ने संघ कार्यों की समीक्षा की है। संघ कार्यकर्ताओं के लगातार प्रयास से पिछले 10 वर्षों में पूरे देश में 10500 शाखाएं बढ़ी हैं। वर्तमान में देश में शाखाओं की कुल संख्यां 50400 है। इनमें से 91 प्रतिशत शाखाएं ऐसी है जहाँ 40 वर्ष से कम आयु के स्वयंसेवक आते हैं। 9 प्रतिशत शाखाओं 40 वर्ष से अधिक आयु के स्वयंसेवक आते हैं इस तरह संघ को हम एक युवा शक्ति कह सकते हैं। उन्होंने कहा कि लोगों का कहना है कि संघ एक नगरीय संगठन है पर ऐसा नही है। अभी संघ का 60 प्रतिशत काम ग्रामीण इलाकों में चल रहा है, जबकि 40 प्रतिशत ही शहर में है। अभी देश के 90 प्रतिशत तहसीलों (प्रखंडों) में संघ के कार्यकर्ता पहुँच चुके हैं। देश के 53000 से अधिक मंडलों (10 से 12 गाँवों को मिलाकर एक मंडल) में से 50 प्रतिशत से अधिक मंडलों तक संघ का काम पहुँच चुका है। युवाओं को संघ से जोड़ने के लिए ज्वाईन आर.एस.एस. (Join RSS) नाम से संघ की वेबसाईट पर व्यवस्था बनायी गयी है। गत चार वर्ष में वेबसाईट के माध्यम से संघ से जुड़ने वाले युवाओं की सख्यां बढ़ी है। 2012 में जहाँ प्रतिमाह 1000 युवा संघ से जुड़ रहे थे वही 2015 में संख्यां बढ़कर 8000 प्रतिमाह हो गई है। आंकड़े दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में युवा संघ से जुड़ने की इच्छा रखते हैं। सरकार्यवाह जी ने कहा कि वर्तमान में सेवा के क्षेत्र एवं ग्रामीण विकास पर संघ काम कर रहा है। आगे जल प्रबंधन, जल संरक्षण व जल संवर्धन पर काम करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। यदि हम एकत्र मिलकर काम करें तो भीषण जल संकट से बचा जा सकता है। आगामी योजनाओं में संघ ने इस पर काम करने का निर्णय लिया है और स्वयंसेवक इसमें लगेंगे। उन्होंने केन्द्र सरकार के स्वच्छता अभियान की तारीफ करते हुए कहा कि यह सराहनीय कार्य है इसे और प्रभावी बनाने की जरूरत है। इस पर भी स्वयंसेवक काम करेंगे। साथ ही संघ चाहता है कि देश में प्रदूषण की समस्या दूर हो एवं व्यसन मुक्त भारत बने।
पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब जी की बेअदबी पर समस्त देशवासी आहत – सुरेश भय्या जी जोशी अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल बैठक रांची 2015 रांची (विसंकें). राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश भय्या जी जोशी ने कहा कि समस्त भारतवासियों की श्रद्धा व आस्था के केन्द्र पवित्र श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के पावन स्वरूप की बेअदबी करने से सभी देशवासियों के हृदय पर गहरा आघात पहुंचा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस कृत्य की कड़े शब्दों में निंदा करता है. श्री गुरु ग्रंथ साहिब ‘जगत जोत’ गुरु स्वरूप तो हैं ही, साथ ही भारत की चिरन्तन आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के संवाहक हैं तथा ‘सांझीवालता‘ के नाते समस्त भारत को जाति-पाति, मत-पंथ, ऊँच-नीच व क्षेत्र- भाषा के विभेदों से ऊँचा उठाकर एक साथ जोड़ते हैं. जिला फरीदकोट के बरगाड़ी गाँव में हुई इस दुःखद घटना के बाद, तरनतारन जिले के ग्राम बाठ एवं निज्झरपुरा में तथा लुधियाना के घवंदी गांव में क्रमवार हुई घटनाओं से स्पष्ट है कि कुछ स्वार्थी व राष्ट्रविरोधी तत्व सुनियोजित षड़यंत्र के अन्तर्गत पंजाब का सौहार्दपूर्ण वातावरण बिगाड़ना चाहते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उपरोक्त सभी कृत्यों की निंदा करते हुए सम्पूर्ण देश व समाज का आवाहन करता है कि वह ऐसे षड़यंत्रों को विफल कर भारत की धार्मिक व सामाजिक सौहार्द की परम्परा को सुदृढ़ करे. संघ का पंजाब सरकार से यह अनुरोध है कि वह इन कुकृत्यों के दोषी तत्वों को चिह्नित कर कठोर कार्रवाई करे और केन्द्र सरकार से भी आग्रह है कि इन षड़यंत्रों के पीछे सक्रिय तत्वों की जाँच कर उन्हें उजागर करे. Nation shocked at the desecration of sacred Shri Guru Granth Sahib – Suresh Bhayya Ji Joshi Posted date: October 30, 2015 Ranchi (VSK). RSS Sarkaryawah Suresh Bhayya Ji Joshi said that The insulting act of desecration of the sacred Shri Guru Granth Sahib which is the center of veneration and devotion for the entire Bharatiya samaj has shocked all the countrymen. The Rashtriya Swayamsevak Sangh condemns this sacrilegious act in strongest terms. Shri Guru Granth Sahib is not only the ‘Jagat Jyot’ (Living Soul ) – an embodiment of Guru but also a carrier of our eternal spirituality and is the cultural conscience that transcends the differences of caste, creed, way of worship, social status, sect, region and language to bring together all the Bharatiyas with a thread of oneness. The sad incident in Bargadi village of Faridkot district followed by series of incidents in village Baath and Nijjharpura in Taran Taran district and at village Ghavandi in Ludhiana district clearly point to a pre-planned conspiracy of vested interests and anti national elements to disturb the harmonious atmosphere of Punjab. Rashtriya Swayamsevak Sangh condemns all the above incidents and calls upon the countrymen to foil these conspiracies and strengthen the tradition of religious and social harmony of Bharat. RSS appeals to the Government of Punjab to take firm action against the miscreants involved in the above demeaning acts and also urge the Central Government to investigate and expose the perpetrators behind this conspiracy.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल बैठक रांची में आरम्भ नई दिल्ली/रांची, 29 अक्टूबर 2015, (इविसंके)। अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक से संबंधित जानकारी देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा कि शुक्रवार से प्रारंभ होने वाली बैठक में धार्मिक आधार पर जनसंख्या वृद्धि के जो आंकड़े सामने आए हैं। उससे जनसंख्या वृद्धि में असमानता ध्यान में आयी है। इस मुद्दे पर बैठक में प्रस्ताव आ सकता है। हाल ही में प्रकाशित हजारिका आयोग की रिपोर्ट में बंगाल और आसाम में घुसपैठ द्वारा विदेशियों की जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव देखकर चिंता व्यक्त की गई है और ऐसा ही चलता रहा तो आनेवाले 25 वर्षों में इस देश में भारतीय ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह चिंता का विषय है। इस पर समाज को जागरूक करने के लिए बैठक में चर्चा हो सकती है। मनमोहन वैद्य जी ने कहा कि इस बैठक में 11 क्षेत्र और 42 प्रांतों के प्रांत संघचालक, प्रांतकार्यवाह, प्रांत प्रचारक, क्षेत्र संघचालक, क्षेत्र कार्यवाह, क्षेत्र प्रचारक, विविध क्षेत्रों में संघ का काम कर रहे प्रतिनिधियों की उपस्थिति है। शुक्रवार प्रातः 08: 30 बजे यह बैठक प्रारंभ होगी। इसमें संघ कार्य पर चर्चा की जाएगी। हाल के दिनों में संघ के प्रति लोगों, खासकर युवाओं की रुचि बढ़ी है। बड़ी संख्या में नए लोग संघ से जुड़ रहे हैं। 2012 में यह संख्या 1000 व्यक्ति प्रतिमाह थी जो अक्टूबर 2015 में बढ़कर 8000 व्यक्ति प्रतिमाह हो गई है। संघ से जुड़ रहे इन नए लोगों को केसे संघ के कामों में उपयोग किया जाए, इसकी भी चर्चा बैठक में हो सकती है। संघ के कार्य को देशव्यापी करने के लिए भी बैठक में विचार होगी। संघ दृष्टि से देश में 265 विभाग हैं, करीब 840 जिले हैं और 6100 ग्रामीण खण्ड हैं। 90 प्रतिशत खंडों तक संघ कार्य पहुँच चुका है। अगला लक्ष्य 55000 मंडलों तक कार्य पहुंचे ऐसा विचार करना है। संघ अधिकारियों का अधिकतम समय प्रवास में बीतता है। इस साल की योजना में सर संघचालक जी क्षेत्र सह प्रवास करेंगे। इसमें प्रांत स्तर के कार्यकर्ता शामिल होंगे। वही सर कार्यवाह एवं सह सरकार्यवाह प्रान्त स्तर का प्रवास करेंगे। जिसमें जिला स्तर के कार्यकर्ता शामिल होंगे। सभी अखिल भारतीय अधिकारी विभागशः प्रवास करेंगे और खंड स्तर के कार्यकर्ता इसमें भाग लेंगे। क्षेत्र व प्रांत स्तर के कार्यकर्ता खंड स्तर तक प्रवास करेंगे तथा वहां के स्वयंसेवक एवं संघ के समर्थकों की बैठक लेंगे।
भारत में पुरस्कार लेने और लौटाने के राजनीतिक मंच पर कम्युनिस्टों का माँस भोज-- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री नयनतारा सहगल नेहरु परिवार से ताल्लुक़ रखतीं हैं । अपने ज़माने में अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ती लिखती रही हैं । उनके लिखे पर कभी साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कार दिया था । पिछले दिनों उन्होंने वह पुरस्कार साहित्य अकादमी को वापिस कर दिया । वैसे तो उम्र के जिस पड़ाव पर नयनतारा सहगल हैं , वहाँ उनके संग्रहालय में कोई पुरस्कार पत्र होने या न होने से बहुत अन्तर नहीं पड़ता । उनका कहना है कि देश में हालात ठीक नहीं हैं । साम्प्रदायिकता बढ़ रही है और कोई कुछ नहीं कर रहा । इसलिये वे अपना पुरस्कार लौटा रही हैं । नयनतारा सहगल को इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि 1947 से लेकर 2015 तक उन्हें पहली बार देश में बढ़ रही साम्प्रदायिकता दिखाई दी और उन्होंने घर के सामान की तलाशी लेकर देश को लौटाने के लिये साहित्य अकादमी द्वारा दिया गया प्रशस्ति पत्र ढंूढ निकाला । लिखती लिखातीं तो वे काफ़ी अरसे से हैं और साम्प्रदायिकता भी तब से ही है जब से वे लिखती लिखाती रही हैं , लेकिन कभी साम्प्रदायिकता उन्हें दिखाई नहीं दी और न ही उनकी आत्मा उस समय पुरस्कार वापिस करने के लिये वजिद हुई । अब नरेन्द्र मोदी की सरकार आते ही उनकी आत्मा अतिरिक्त सक्रिय हो गई । अरसा पहले साहित्य अकादमी द्वारा दिये गये पुरस्कार को राजनैतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की चेष्टा, भारत के अंग्रेज़ी भाषा साहित्य के इतिहास की दुखद घटना ही कही जायेगी । लेकिन इस पर आश्चर्य इसलिये नहीं होता कि देश में अंग्रेज़ों के और अंग्रेज़ी साहित्य के इतिहास में ऐसी दुखद घटनाओं के अम्बार दिखाई दे जाते हैं । भारत में अंग्रेज़ी भाषा के साहित्य के पुरोधा नीरद चौधरी तो अंग्रेज़ों के चले जाने से ही इतना दुखी हुये थे कि हिन्दुस्तान छोड़ कर ही इंग्लैंड में जा बसे थे । नयनतारा का धन्यवाद करना होगा कि वे इतनी साम्प्रदायिकता के बाबजूद कम से कम देश में तो रह रहीं हैं । देश पर इतना अहसान क्या कम है ? लेकिन नयनतारा सहगल के तुरन्त बाद ,कभी आई ए एस अधिकारी रहे अशोक वाजपेयी ने भी अपना पुरस्कार साहित्य अकादमी को लौटा दिया । अशोक वाजपेयी प्रशासन चलाने के साथ साथ हिन्दी में कविता कहानी भी लिखते रहते थे । प्रशासनिक क्षेत्र के लोग उन्हें हिन्दी साहित्य में निपुण बताते हैं लेकिन हिन्दी साहित्य के लोग उनको प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर ज़्यादा पहचानते है । प्रशासनिक अधिकारी रहते हुये कोई व्यक्ति साहित्य के क्षेत्र में जितना ऊँचा क़द कर सकता है , उतना अशोक जी ने कर लिया था । उनकी उन कविता कहानियों पर उन्हें भी कभी साहित्य अकादमी ने इनाम इकराम दिया था । ये सब बातें मध्य प्रदेश के क़द्दावर नेता अर्जुन सिंह के ज़माने की हैं । अर्जुन सिंह थे तो खाँटी राजनैतिक क़िस्म के प्राणी ही , लेकिन कविता कहानी और क़िस्से सुनने का उन्हें भी काफ़ी शौक़ था । वैसे उनको लेकर कई क़िस्से भी प्रचलित हो गये थे । इस कारण से मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह व अशोक वाजपेयी की जोड़ी ख़ूब जम गई थी । एक को क़िस्से कहानी सुनने का शौक़ था और दूसरे को लिखने और सुनाने का । इसलिये जोड़ी जमनी ही थी । कई लोग तो यह भी कहते हैं कि इस जोड़ी ने मध्य प्रदेश में आतंक जमा रखा था । उन जिनों अशोक वाजपेयी की कविताई ख़ूब फली फूली और जगह जगह से इनाम इकराम भी मिले । दरबार में रहने का यह लाभ होता ही है । यह परम्परा आज की नहीं प्राचीन काल की है । जिन दिनों भोपाल में गैस कांड हुआ था ,लोग कुत्ते बिल्ली की तरह मर रहे थे लेकिन अर्जुन सिंह इसके लिये ज़िम्मेदार कम्पनी के मालिक को जेल भेजने की बजाए , जहाज़ देकर देश से बाहर सुरक्षित पहुँचाने के राष्ट्रीय कार्य में लगे हुए थे , उन दिनों भी चर्चा हुई थी कि शायद अशोक वाजपेयी विरोध स्वरुप सरकार द्वारा दिया गया कोई मोटा न सही , छोटा पुरस्कार ही वापिस कर देंगे । लेकिन ऐसा नहीं हुआ था । आत्मा को भी समय स्थान देख कर ही जागना होता है । शायद अशोक वाजपेयी को लगा होगा कि आत्मा के जगने का वह राजनैतिक लिहाज़ से उचित समय नहीं था । सब साहित्यकार जानते हैं कि पुरस्कार लेने और लौटाने की भी पूरी राजनीति होती है । अचानक अब अशोक वाजपेयी ने फ़ैसला ले लिया कि जब नयनतारा सहगल ने घर की सफ़ाई शुरु कर दी है और इनाम वापिस करने शुरु कर दिये हैं तो उन्हें भी पीछे नहीं रहना चाहिये । उन्होंने भी अपना साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार वापिस लौटाने की घोषणा कर दी है । कारण उनका भी वही है कि देश की हालत बिगड़ती जा रही है । प्रधानमंत्री चुप क्यों हैं ? वैसे कई साहित्यकार इस बात को लेकर भी हैरान हैं कि उन्होंने केवल साहित्य अकादमी वाला पुरस्कार ही क्यों लौटाया ? पुरस्कार तो उन्हें अर्जुन सिंह के ज़माने में और भी बहुत मिले थे । लेकिन क्या लौटाना है और क्या संभाल कर रखना है , इसे अशोक वाजपेयी से बेहतर कौन जान सकता है । ऐसे साहित्यकार साहित्य को थाली बना कर प्रयोग करते हैं । जीवन भर यजमान से उस थाली में भर भर कर दान दक्षिणा प्राप्त करते रहते हैं । उसके बलबूते साहित्य की रणभूमि में चिंघाड़ते रहते हैं । समय निकाल कर भारत भवन में घुस कर साहित्यिक खर्राटे मारते हैं । शिष्य मंडली उन खर्राटों की भी व्यंजनामूलक व्याख्या करती है । जब सूर्य अस्त होने का समय आता है , यजमान के घर से 'अब कुछ नहीं मिलेगा' का आभास होने लगता है तो ग़ुस्से में आकर, अब तक का माल असबाब समेट कर ख़ाली थाली नये यजमान की ओर फेंक देते हैं । अशोक वाजपेयी से बडा प्रयोगधर्मी साहित्यिक जगत में कौन है ? जिसे वे पुरस्कार लौटाने की संज्ञा दे रहे हैं , वह मात्र ग़ुस्से में आकर नये यजमान की ओर फेंकी गई ख़ाली थाली की झनझनाहट है । इसे मध्यप्रदेश में वाजपेयी के सब मित्र अच्छी तरह जानते हैं । इस समय सचमुच अर्जुन सिंह की बहुत याद आ रही है । वे आज होते तो शिष्यों को यह दिन देखने पड़ते ? केरल के साहित्यकार साराह जोसफ़ और उर्दू साहित्यकार रहमान अब्बास ने भी अपना सम्मान वापिस कर दिया है । इसी प्रकार पंजाब के तीन चार साहित्यकारों गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख,और आत्मजीत ने साहित्य अकादमी को,कुछ बरस पहले मिले पुरस्कार लौटा दिये । अब तक यह संख्या पचास के पास पहुँच गई है । दर्द सब का एक ही है । देश में साम्प्रदायिक वातावरण पनप रहा है । लोग असहिष्णु हो गये हैं । पर ये साहित्यकार यह खोजने की कोशिश नहीं करते कि इन की किन हरकतों से लोग असगिष्णु हो गये हैं ? लेकिन विरादरी में कुछ ऐसे लोग भी थे जिन के पास लौटाने के लिये कुछ नहीं था । उनके पास साहित्य अकादमी के निकायों की सदस्यता ही थी । दो तीन ने वही छोड़ दी । यह अलग बात है कि उनकी सदस्यता की मियाद वैसे भी कुछ समय में ख़त्म ही होने वाली थी । लेकिन ऐसे अवसर पर कम्युनिस्टों की सक्रियता देखते ही बनती है । कम्युनिस्टों के लिये राजनैतिक युद्ध का अपना दर्शन है । उसमें नैतिकता अनैतिकता का प्रश्न सदा गौण रहता है । जब लड़ाई शुरु होती है तो सेना के विशेषज्ञ प्रथम रक्षा पंक्ति के ध्वस्त हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुये द्वितीय रक्षा पंक्ति और उससे भी आगे तृतीय रक्षा पंक्ति तक की तैयारी करके रखते हैं । उसी की तर्ज़ पर क्म्युनिस्ट पार्टियाँ दुनिया भर में लोकयुद्ध की तैयारी करती हैं । लेकिन वे प्रथम रक्षा पंक्ति कभी तैयार नहीं करतीं । क्योंकि वे जानते हैं कि इस रक्षा पंक्ति में युद्ध आम जन के बीच में जाकर लड़ना होता है और उसका फ़ैसला भी आम जनता ही करती है । लोकतंत्र के इस लोकयुद्ध में उनके जीतने की संभावना लगभग शून्य होती है । चीन में जो कम्युनिस्टों का मक्का माना जाता है , उसमें भी नाम तो आम जनता का ही लिया जाता है लेकिन साम्यवादी तानाशाही के ख़िलाफ़ लोगों को कोई दूसरा समूह बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता । कम्युनिस्टों की इस रणनीति की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है कि उनके लोक युद्धों में सामान्य आदमी या 'लोक' सदा ग़ायब रहता है । लेकिन साम्यवादियों का दावा रहता है कि लोक मानस को सबसे ज़्यादा वही जानते हैं । यह अलग बात है कि लोक मानस को समझ पाने का उनका दावा इतिहास ने सदा झुठलाया है । भारत विभाजन के समय वे मुस्लिम लीग के साथ थे और पाकिस्तान निर्माण के समर्थक थे । 1942 में अंग्रेज़ो भारत छोड़ो के आन्दोलन के समय वे अंग्रेज़ों के साथ थे और भारतीय मानस को समझने का दावा भी कर रहे थे । 1962 में चीन के आक्रमण में वे चीन के साथ थे और फिर भी भारत के लोगों के मन को समझने का दावा कर रहे थे । 1950 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के सभी समूहों को मिला कर वे लगभग साढ़े पाँच सौ की लोक सभा में वे पचास से ज़्यादा सीटें कभी जीत नहीं सके , फिर भी उनका दावा रहता है कि भारतीय जन के असली प्रतिनिधि वही हैं । लेकिन कहीं भी राजनैतिक भोज हो या साहित्यिक भोज हो , कम्युनिस्ट उसकी गंध मीलों दूर से सूंघ लेते हैं । उसके बाद झपटा मार कर वे मंच पर क़ब्ज़ा जमा लेते हैं और अपना नुक्कड़ नाटक चालू कर देते हैं । एक के बाद एक , आकाशमार्ग से पंख फैलाते हुए उनका धरती पर उतरना बहुत ही मनमोहन दृष्य उपस्थित करता है । आकाश मार्ग से उतरने का यह भव्य दृष्य दो बार होता है । पहले पुरस्कार प्राप्त करने के समय और दूसरा , यदि जरुरत पड़ जाये तो , उसे लौटाने के समय । नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी द्वारा साहित्य के धरातल पर शुरु किये गये इस साहित्यिकनुमा राजनैतिक भोज की गंध देखते देखते कम्युनिस्ट खेमे में पहुँच गई । वे बड़ी संख्या में वहाँ इक्कठे हो गये और अब धडाधड ,जिस के पास साहित्य अकादमी का पुरस्कार था वह साहित्य अकादमी का पुरस्कार और जिस के पास कोई प्रदेश या ज़िला स्तर का पुरस्कार था उसने वही पुरस्कार लौटाना प्रारम्भ कर दिया । इन्दिरा गान्धी के ज़माने में कम्युनिस्ट उनके काफ़ी समीप चले गये थे । संकट काल में उनकी मदद कर दिया करते थे । उनके कामों की प्रगतिवादी शब्दावली में व्याख्या करके वैचारिक गरिमा प्रदान करने का वामपंथी कार्य भी करते थे । इसके बदले में उन्हें सरकार से इनाम इकराम मिलते रहते थे । साहित्य के काम धंधे में लगी टोली को साहित्यिक इनाम मिलते थे । जिन्हें पढ़ाने का शौक़ था , उनको इनाम में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय दिया गया । जिनकी राजनीति में रुचि थी उनको पार्टी में शामिल करके एक आध मंत्री पद भी दिया गया । बीच बीच में रुस सरकार भी इनको मास्को में बुला बुला कर साहित्यिक पुरस्कार नुमा प्रशस्ति पत्र दिया करती थी । सरकारी ख़र्च पर घूमना फिरना तो होता ही था । अब वह युग बीत गया है । लेकिन साम्यवादी खेमा अस्त होने से पहले एक अंतिम लड़ाई लड़ लेना चाहता है । इसलिये अपने ज़माने में प्राप्त इस सारी पुरानी पड़ गई सामग्री को समेट कर , अपनी वाममार्गी साधना से एक ऐसा हथियार बनाना चाहता है जो नरेन्द्र मोदी को चित कर दे । साहित्यिक पुरस्कार लौटाने का यह नुक्कड़ नाटक उसी का हिस्सा है । अलबत्ता इस बात का ध्यान सभी रख रहे हैं कि सम्मान लौटाने की सीमा सम्मान देने वाली संस्था से प्राप्त सूचना पत्र लौटाने तक ही सीमित रहे । यहाँ तक सम्मान से प्राप्त धनराशि का प्रश्न है , उसको इस अभियान से दूर ही रखा जाये । बहुत से साहित्यकार पुरस्कार लौटाने में यही बेईमानी कर रहे हैं । अरसा पहले इनाम देने वाली संस्था ने जो इनाम देने की चिट्ठी भेजी थी और उसके साथ प्रमाण पत्र नत्थी किया था , वह तो इनाम देने वाली संस्था को लौटा रहे हैं , लेकिन साथ आया चैक अभी भी गोल कर रहे हैं । सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाए । थोथा सर्टिफ़िकेट अकादमी की ओर उड़ा दिया और धन रुपी सार अभी भी संभाल कर ही रखा हुआ है । साहित्यिक पुरस्कारों के माँस भोज में सारा माँस चट कर लेने के बाद यह सूखी हड्डियाँ लौटाने का नया साम्यवादी पर्व शुरु हुआ है । कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में वे लोकतांत्रिक पद्धति से कभी जीत नहीं सकते , इसलिये तेलंगाना सशस्त्र क्रान्ति से लेकर कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला को आगे करके जम्मू कश्मीर को अलग स्वतंत्र राज्य बनाने के प्रयास करते रहे । लेकिन जन विरोध के कारण वे वहाँ भी असफल ही रहे । तब उन्होंने अपनी रणनीति बदली और कांग्रेस में घुस कर वैचारिक प्रतिष्ठानों पर क़ब्ज़ा करने में लग गये । उसमें उन्होंने अवश्य किसी सीमा तक सफलता प्राप्त कर ली । कांग्रेस को भी उनकी यह रणनीति अनुकूल लगती थी । इससे कांग्रेस को अपनी तथाकथित प्रगतिशील छवि बनाने में सहायता मिलती रही और कम्युनिस्टों को बौद्धिक जुगाली के लिये सुरक्षित आश्रयस्थली उपलब्ध होती रही । लेकिन इन आश्रयस्थलियों में सुरक्षित बैठकर बौद्धिक जुगाली करते इन तथाकथित साहित्यकारों , रंगकर्मियों , फिल्मनिर्माताओं और इतिहासकारों में एक अजीब हरकत देखने में मिलती है । भारतीय इतिहास, संस्कृति , साहित्य इत्यादि को लेकर जो अवधारणाएँ ,अपने साम्राज्यवादी हितों के पोषण के लिये ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने प्रचलित की थीं , ये भलेमानुस भी उन्हीं की जुगाली कर रहे हैं , जबकि रिकार्ड के लिये साम्यवादी जनता में यही प्रचारित करते हैं कि उनके जीवन का अंतिम ध्येय ही साम्राज्यवाद की जड़ खोदना है । भारत में यह विरोधाभास आश्चर्यचकित करता है । ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को लेकर जो अवधारणाएं स्थापित कर रहे थे , वे भारतीयता के विरोध में थीं । उनका ध्येय भारत में से भारतीयता को समाप्त कर एक नये भारत का निर्माण करना था , जिस प्रकार चर्च ने यूनान में यूनानी राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये यूनान का निर्माण कर दिया और इस्लाम ने मिश्र में वहाँ की राष्ट्रीयता को समाप्त कर एक नये वर्तमान मिश्र का निर्माण कर दिया । इसी को देख कर डा० इक़बाल ने कभी कहा था--- यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहाँ से ।' इस मिटने का अर्थ वहाँ की राष्ट्रीयता एवं विरासत के मिटने से ही था । इसी का अनुसरण करते हुये ब्रिटिश साम्राज्यवादी हिन्दुस्तान को भी बीसवीं शताब्दी का नया यूनान बनाना चाहते थे । उस समय की कांग्रेस में उन्होंने ऐसे अनेक समर्थक पैदा कर लिये थे जो भारतीयता को इस देश की प्रगति में बाधा मानकर , उसे उखाड़ फेंककर , यूनान की तर्ज़ पर एक नये राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । कांग्रेस में पंडित नेहरु इसके सरगना हुये । कम्युनिस्ट भी इसी अवधारणा से सहमत थे , इसलिये इस मंच पर बैठने वाले वे स्वाभाविक साथी बने । मुस्लिम लीग ने तो भारतीय इतिहास और संस्कृति को नकारने से ही अपनी शुरुआत की थी । वे इस मंच के तीसरे साथी हुये । लेकिन कोढ में खाज कि तरह ये तीनों दल या समूह अपनी राजनैतिक लड़ाइयाँ तो अलग अलग लड़ते थे लेकिन भारत की संस्कृति के विरोध में इक्कठे नज़र आते थे । इस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा तैयार किये गये इस वैचारिक अनुष्ठान में कांग्रेस और कम्युनिस्ट स्वाभाविक साथी बने । ज़ाहिर है भारत में भारतीयता विरोधी यह वैचारिक अनुष्ठान ब्रिटिश-अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों ने तैयार किया था , इसलिये इसकी सफलता के लिये वे 1947 के बाद से ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से , दूर व नज़दीक़ से इसकी सहायता करते रहे । कहना न होगा , जहाँ तक सांस्कृतिक व इतिहास के फ़्रंट की लड़ाई का प्रश्न है , भारत में कम्युनिस्ट इच्छा से या अनिच्छा से ब्रिटिश -अमेरिकी साम्राज्यवादी शक्तियों का मोहरा बन गये । भारतीय राजनीति का पिछले तीस साल का कालखंड तो इस मोर्चा के लिये अत्यंत लाभकारी रहा और वे भारतीयता के विरोध को ही भारत की राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनाने में कामयाब हो गये । इसका कारण केन्द्र में गठबन्धन की राजनीति का वर्चस्व स्थापित हो जाना था । भारतीयता विरोधी विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों के लिये यह समय सबसे अनुकूल रहा । लेकिन २०१४ में भारतीयों ने तीस साल के बाद लोकतांत्रिक पद्धति से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के इस संयुक्त मोर्चा को ध्वस्त कर दिया । पहली बार लोक सभा में किसी एक राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ । कम्युनिस्टों के लिये सबसे कष्टकारी बात यह थी कि यह बहुमत भारतीय जनता पार्टी को मिला । जिन राष्ट्रवादी शक्तियों के विरोध को कम्युनिस्टों ने अपने अस्तित्व का आधार ही बना रखा था , उन्हीं राष्ट्रवादी शक्तियों के समर्थन में भारत के लोग एकजुट होकर खड़े हो गये । कम्युनिस्टों की आश्रयस्थलियां नष्ट होने के कगार पर आ गईं । इतने साल से जिस स्वप्न लोक में रहते रहे और उसी को धीरे धीरे यथार्थ मानने लगे थे , उसे भारत की जनता ने एक झटके में झटक दिया । भारतीय मानस को समझ लेने का उनका दावा ख़ारिज हो गया । दरबार उजड़ गया । भारत के इतिहास और संस्कृति की साम्राज्यवादी व्याख्या पर ख़ुश होकर राजा सोने की अशर्फ़ी इनाम में देता था , वह राजपाट लद गया । लगता है दरबार के उजड़ जाने पर , उसके आश्रितों की फ़ौज विलाप करती हुई राजमार्ग पर निकल आई हो । कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों की यह फ़ौज अब अंतिम लड़ाई के लिये मैदान में निकली है । जिस प्रकार आतंकवादी अपनी लड़ाई में बच्चों को , स्त्रियों को चारे के रुप में इस्तेमाल करते हैं , उसी प्रकार कम्युनिस्ट अपनी लड़ाई में कलाकारों , लेखकों , साहित्यकारों , चित्रकारों , इतिहासकारों का प्रयोग हथियार के रुप में करते हैं । लेकिन इस काम के लिये वे सचमुच साहित्यकारों , कलाकारों या इतिहासकारों का प्रयोग करते हों , ऐसा जरुरी नहीं है । क्योंकि कोई भी साहित्यकार या इतिहासकार आख़िर कम्युनिस्टों की इस ग़ैर लोकतांत्रिक लड़ाई में हथियार क्यों बनना चाहेगा ? इसलिये कम्युनिस्ट अत्यन्त परिश्रम से अपने कैडर को ही साहित्यकार, इतिहासकार, और सिनेमाकार के तौर पर प्रोजैक्ट करते रहते हैं , ताकि इस प्रकार के संकटकाल में उनका प्रयोग किया जा सके । भारत में कम्युनिस्टों को इस काम में सत्तारुढ कांग्रेस से बहुत सहायता मिली । अपने लोगों को विभिन्न सरकारी इदारों से समय समय पर पुरस्कार दिलवा कर उनका रुतबा बढ़ाया गया । पिछले साठ साल से कम्युनिस्ट भारत में यही काम कर रहे थे । इसलिये उनके पास विभिन्न क्षेत्रों में पुरस्कार प्राप्त या फिर जिनका रुतबा बढ़ गया हो , ऐसे लोगों की एक छोटी मोटी फ़ौज तैयार हो गई है । लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी की सरकार बनी है , तब से कम्युनिस्ट खेमे में हाहाकार मचा हुआ है । भाजपा को हराने के लिये कम्युनिस्ट न जाने कितने कितने फ़ार्मूले जनता को समझाते रहे । लेकिन इस देश की जनता कम्युनिस्टों की भाषा नहीं समझती क्योंकि उनकी भाषा इस देश की मिट्टी से निकली हुई नहीं होती । उनकी भाषा कभी मास्कों की भट्टी से तप कर निकलती थी और कभी बीजिंग की भट्टी से । इसलिये देश के लोगों ने कम्युनिस्टों को हाशिए पर पटक दिया । इसलिए कम्युनिस्ट अब दूसरी व तीसरी रक्षा रक्षा पंक्तियों की आरक्षित सेना को इस लोक विरोधी लड़ाई में उतार रहे है । साहित्यकारों को आगे करके अपनी राजनैतिक लड़ाई लड़ना कम्युनिस्टों की पुरानी शैली है । उनके लिये साहित्य की स्वतंत्र इयत्ता नहीं है , वह केवल पार्टी के प्रचार का साधन मात्र है । उनके लिये साहित्यकार की उपयोगिता भी यही है , जिसका उपयोग वे इस समय कर रहे हैं । साहित्य और साहित्यकार की कम्युनिस्टों के खेमे में क्या औक़ात है , इसका ख़ुलासा आधुनिक कम्युनिस्टा अरुन्धति राय ने किया है । उसके अनुसार,हमारी रणनीति केवल साम्राज्य को ललकारने की ही नहीं होनी चाहिये, बल्कि हर तरीक़े से उसकी घेराबन्दी करने की होनी चाहिये । इसकी प्राणवायु समाप्त करने की , इसकी हँसी उड़ाने की , इसको लज्जित करने की होनी चाहिये । यह सब कुछ हमें अपनी कला, अपने संगीत,अपने साहित्य, अपने हठ, अपनी योग्यता, अपने परिश्रम से करना होगा । लोगों को अपनी कहानियाँ सुनाने की योग्यता से करना होगा ।" कम्युनिस्ट लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ,जनता के पास जाकर , उससे उनकी भाषा में संवाद रचना करने में असफल हैं , क्योंकि वे स्वयं आयातित प्राणवायु पर जीते हैं । लेकिन लोकशाही को गिराने के लिये वे साहित्य का दुरुपयोग करने में लज्जा महसूस नहीं करते । उनकी एक मात्र योग्यता , जिसकी ओर राय ने इशारा किया है , हठपूर्वक अपने कहानी को बार बार दोहराते रहना ही है । कम्युनिस्ट , साहित्य को प्रचार सामग्री और साहित्यकार को पार्टी का भोंपू मानते हैं । यही कारण है कि अब लोकशाही के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में वे, साहित्यकारों को उपहास का पात्र बना रहे हैं । दरअसल साहित्य जगत से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि पुरस्कार प्राप्त करने की भी अपनी एक स्थापित राजनीति है । जिनकी किताबों को पढ़ने के लिये दस पाठक भी नहीं मिलते और जिनकी किताब का पाँच सौ प्रतियों में छपा पहला संस्करण बिकने में दस साल खा जाता है, कई बार उन्हें ही साहित्य शिरोमणि घोषित किया जाता है । कई बार ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार मिलता है जिसके बारे में पुरस्कार मिलने के बाद ही साहित्य जगत को पता चलता है कि पुरस्कार विजेता लिखता भी है । इनमें से कुछ साहित्यकार तो ऐसे हैं जिनके 'अमर साहित्य' की चर्चा केवल 'आई ए एस सर्किल' में ही होती है । अनेक साहित्यकार अपने लिखें को अपने परिवार वालों को सुना कर ही संतोष प्राप्त करते हैं । शेष पार्टी के कैडर में गा गाकर तालियाँ बटोरते हैं । रही बात पुरस्कारों की , तो अन्धा बाँटे रेवड़ियाँ फिर फिर अपनों को ' की कहावत का अर्थ हिन्दी वालों को इनको पुरस्कार मिलते देख कर ही समझ में आया । यह साहित्य जगत का अपना काला बाज़ार है । जिस प्रकार पुरस्कार लेने की राजनीति है , उसी प्रकार पुरस्कार लौटाने की भी अपनी एक राजनीति है । जो उसी राजनीति के चलते पुरस्कार लेगा तो वह उसी राजनीति के आधार पर पुरस्कार लौटायेगा भी । नहीं लौटायेगा तो तंजीम से बाहर कर दिया जायेगा । जो अपने बलबूते पुरस्कार प्राप्त करता है , वह उसकी अपनी कमाई है । उसके लौटाने का सवाल कहाँ पैदा होता है ? लेकिन जिनको दरबार में रहने के कारण पुरस्कार मिला होता है , उनको संकट काल में दरबार के कहने पर पुरस्कार लौटाना ही होता है । दरबारी परम्परा में इसमें नया कुछ नहीं है । साम्यवादियों से बेहतर इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी में कहा भी गया है- धर्म से धड़ा प्यारा । पंजाब के औलख,भुल्लर और मेघराज मित्तर से ज़्यादा अच्छी तरह इसे कौन समझ सकता है ? पंजाबी की एक दूसरी साहित्यकार प्रो० दिलीप कौर टिवाणा ने पद्म श्री वापिस कर दी । अस्सी साल की उम्र में वैसे भी इन पुरस्कारों और तगमों की कोई औक़ात नहीं रह जाती । उम्र का एक हिस्सा होता है जिस में ये पुरस्कार और तगमे किसी भी व्यक्ति को प्रोजैक्ट करने में सहायता करते हैं । उतना लाभ इन तगमों से लिया जा चुका है । उम्र के चौथे मोड़ पर ये तगमे और पुरस्कार उस बाँझ पशु के समान हो जाते हैं , जिनसे जितना दूध लिया जा सकता था , लिया जा चुका है । अब आगे इसके बयाने और दूध देते रहने की कोई संभावना नहीं है । लोग उस बाँझ पशु को घर से निकाल देते हैं । अनेक साहित्यकारों के लिये इन तगमों और पुरस्कारों की भी यही स्थिति हो गई है । लेकिन उनकी रणनीति की दाद देनी पड़ेगी । उन्हेंने पुरस्कार लेने का भी लाभ उठाया और अब पुरस्कार लौटाने का भी लाभ उठा रहे हैं । भैंस जीती है तो दूध पाओ और उसके मरने के बाद चमड़े से भी पैसा कमाओ । पुरस्कार लौटाकर चमड़े से भी पैसा कमाने की साहित्यिक व्यवसायिकता का प्रमाण ही कुछ साहित्यकार दे रहे हैं । नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये कम्युनिस्ट टोला कितने ही हथकंडे अपना चुका है । लेकिन देश की जनता कम्युनिस्टों का साथ नहीं दे रही । अब उन्होंने साहित्यकारों को आगे करके यह नई लड़ाई छेड़ी है । लेकिन उन्हें शायद यह अहसास नहीं है कि रणभूमि में यह बहुत कमज़ोर बटालियन उतार दी गई है । यह कुछ देर के लिये मनोरंजन तो कर सकती है लेकिन देश की जनता को मुख्य मार्ग से हटा नहीं सकती । ऐसा नहीं कि पुरस्कार लौटाने वाले सभी साहित्यकार कम्युनिस्ट विचार धारा के खूँटे से बँधे लोग ही हैं । कुछ ऐसे भी हैं जिनका किसी भी विचार धारा से कोई रिश्ता नहीं है । वे भी पुरस्कार लौटाने वालों की जमात में शामिल हो गये हैं । ये लोग चलती भीड़ में शामिल होने वालों की श्रेणी के हैं । हर समाज में ऐसे लोग मिलते हैं । वैसे पुरस्कार लौटाने के इस नुक्कड़ नाटक में भाग लेने वाले साहित्यकारों को एक प्रश्न का उत्तर तो इस पूरे नाटक में देना ही होगा । हो सकता है कि वह प्रश्न स्क्रिप्ट में न हो । लेकिन मंच के नीचे बैठे दर्शकों को भी आधुनिक नुक्कड़ नाटकों में प्रश्न पूछने का अधिकार तो है ही । दर्शकों का वह प्रश्न है कि देश में इससे पहले भी अनेक दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हो चुकी हैं । दादरी की घटना ऐसी पहली घटना नहीं है । आपात काल को पुरानी घटना भी मान लिया जाये तो १९८४ में कांग्रेस की नाक के नीचे जो नरसंहार हुआ , उसे देख कर किसी की आत्मा क्यों नहीं जागी ? अब तो यह सिद्ध हो चुका है कि उस नरसंहार में उस समय के सत्ताधीशों का प्रत्यक्ष हाथ था । वैसे कार्ल मार्क्स आत्मा की सत्ता को नकारते हैं , लेकिन फिर भी कार्ल मार्क्स को ही साक्षी मान कर बता सकते हैं कि वे अब तक चुप क्यों थे ? वे अब तक चुप क्यों रहे , यह प्रश्न बंगला भाषा की जानी पहचानी लेखिका तसलीमा नसरीन ने भी उठाया है । अरसा पहले नसरीन की पुस्तक पर सरकार ने पाबंदी आयद कर दी थी । पश्चिमी बंगाल की उस समय की साम्यवादी सरकार ने तो तसलीमा का कोलकाता रहना मुश्किल कर दिया था । उनको देश से निकालने की ही तैयारियाँ होने लगी थीं । कारण मुसलमानों की नाराज़गी ही कहा जा रहा था । तसलीमा के अनुसार कुछ भारतीय लेखकों ने उनकी पुस्तक पर पाबंदी लगाने और उन्हें पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने का भी समर्थन किया था। तसलीमा को इस बात पर आश्चर्य हो रहा है कि जब उनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी हो रहे थे । दिल्ली में वे लगभग एक नज़रबन्दी की हालत में रह रही थीं और उनकी किताब पर आधारित एक टीवी धारावाहिक का प्रसारण रोक दिया गया, तब तो लेखक चुप ही रहे । इस साहित्यिक प्रश्न पर तो उनकी आत्मा जाग सकती थी । तसलीमा नसरीन का ग़ुस्सा जायज़ ही है । जिस समय लेखकों को लेखक समुदाय के ही दूसरे लेखक की बोलने की आज़ादी के लिए ,विरोध ही दर्ज करवाना नहीं, बल्कि उसके लिए सक्रिय संघर्ष भी करना चाहिए था , तब तो वे सामूहिक रुप से भी और व्यक्तिगत रुप में भी चुप ही रहे । अब जब मुद्दा आपराधिक है और दंड संहिता से ताल्लुक़ रखता है , तो तीन दर्जन से भी ज़्यादा लेखक पारितोषिक वापिस देने के लिए तैयार हो गये । तसलीमा नसरीन का प्रश्न बिल्कुल जायज़ है लेकिन इसका उत्तर देने के लिए किसी भी लेखक ने स्वयं को बाध्य नहीं माना । यह पुरस्कार लौटाने वालों की जमात का दोहरा चरित्र ही स्पष्ट करता है । 23 अक्तूबर 2015 को साहित्य अकादमी की बैठक के समय जनवादी लेखक मंच के नाम से कुछ साहित्यकारों ने अकादमी भवन के बाहर प्रदर्शन किया और अकादमी के अध्यक्ष को ज्ञापन सौंपा । इन लेखकों का कहना था कि अकादमी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार की रक्षा के लिये आगे आना चाहिये । लेखकों का यह जत्था यह नहीं बता रहा था कि अकादमी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोध कब किया ? अकादमी विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित साहित्यिक कृतियों का मूल्याँकन करवाती है । उसके आधार पर उनमें से कुछ को पुरस्कार दिया जाता है । कर्नाटक में एक जाने माने प्रतिष्ठित साहित्यकार कालबुर्गी की हत्या कर दी गई है तो वहाँ अपराधियों को दंडित करने के लिये साहित्यकारों को अवश्य लड़ना चाहिये । लेकिन साहित्यकार ऐसा न करके दिल्ली में साहित्य अकादमी के आगे क्या कर रहे हैं ? ज़ाहिर है उनका दुख कालबुर्गी की नृशंस हत्या को लेकर नहीं है , बल्कि वे उसकी ढाल बना कर नरेन्द्र मोदी की सरकार पर निशाना साधना चाहते हैं । यह वर्षों पुराना घटिया साम्यवादी तरीक़ा है , जिस पर से रंग रोगन पहले ही उतर चुका है । कालबुर्गी की आत्मा भी साम्यवादियों की इस हरकत पर आँसू बहा रही होगी । मरे हुये आदमी की लाश पर भी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने की यह निंदनीय हरकत है । लेकिन साम्यवादियों के लिये तो वैसे भी साहित्य रचना कला साधना नहीं है बल्कि पार्टी एप्रेटस का मात्र एक हिस्सा है । साहित्य अकादमी ने साहित्यकारों से अपील की है कि वे पुरस्कार को राजनैतिक लड़ाई का साधन न बनायें । वैसे तो साहित्य अकादमी की अपनी महिमा भी पूर्व काल में न्यारी ही रही है । एक बार जम्मू कश्मीर के एक सज्जन मोहम्मद यूसुफ़ टेंग ने , वहाँ के उस समय के मुख्यमंत्री शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की जीवनी आतिशे चिनार लिखी थी । वह जीवनी शेख़ के सुपुर्दे ख़ाक हो जाने के बाद छपी । लेकिन किताब पर शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला का नाम लेखक के नाते ही छाप दिया गया । जबकि टेंग ने किताब के शुरु में ही साफ़ कर दिया था कि मेरी शेख़ की जीवनी लिखने की इच्छा थी । इसलिये मैं उनके पास उनकी जीवन यात्रा की घटनाएँ और क़िस्से जानने के लिये जाता था और शेख़ मूड में आकर बताते भी थे । शेख़ से बातचीत करने के बाद घर आकर टेंग साहिब उनकी जीवनी लिखने का काम शुरु कर देते । इसके बाबजूद कोई घटना गल्त न लिखी जाये , इसके लिये वे लिखने के कुछ दिन बाद शेख़ को जाकर वह दिखा भी आते थे । कोई भी जीवनी लेखक प्रामाणिक सामग्री जुटाने के लिये यह सब करेगा ही । लेकिन बाद में उस किताब का लेखक ही शेख़ अब्दुल्ला को बता दिया गया । किताब के छपते ही साहित्य जगत में हंगामा हो गया कि इस किताब का लेखक किसको माना जाये ? शेख़ को या टेंग को ? शेख़ परिवार की राजनैतिक हैसियत देखते हुये टेंग तो भला क्या साहस दिखाते । वैसे भी उन्होंने इस बात का ख़ुलासा उस किताब में कर ही रखा था । लेकिन साहित्य अकादमी ने आनन फ़ानन में उर्दू भाषा के साहित्य का उस साल का पुरस्कार ही शेख़ मोहम्मद के नाम कर डाला । टेंग चुप रह गये । अब देखना होगा कि जब नयनतारा सहगल व अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी के दिये पुरस्कार लौटाने की शुरुआत कर दी है तो क्या अब्दुल्ला परिवार के लोग भी यह पुरस्कार लौटायेंगे ? आख़िर टेंग के साथ न्याय हो जाये , इसी को ध्यान में रखते हुये यह पुरस्कार लौटाया जा सकता है । कम्युनिस्टों को भ्रम था कि पुरस्कार लौटाने वाले नुक्कड़ नाटक से देश में कोहराम मच जायेगा । लेकिन ऐसा न होना था और न ही हुआ । कोहराम उनसे मचता है जिनका देश की जनता पर कोई प्रभाव हो । कुछ दिन अख़बारों में हाय तौबा तो मचती रही , इलैक्ट्रोंनिक चैनलों पर बहस भी चलती रही । लेकिन कम्युनिस्ट भी समझ गये थे कि यह पटाखा आवाज़ चाहे जितनी कर ले , ज़मीन पर इस का प्रभाव नगण्य ही होगा । सोनिया कांग्रेस , कम्युनिस्टों और साम्राज्यवादियों द्वारा लड़ी जा रही इस जन विरोधी लड़ाई में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लौटाने का नुक्कड़ नाटक बिना कोई प्रभाव छोड़े समाप्त हो जाने से बौखला कर कुछ दिन पहले मैदान में दूसरी बटालियन उतारी गई । यह बटालियन उन लोगों की थी जो फ़िल्में बगैरह बनाते हैं । कई लोगों की फ़िल्में तो जनता देखती भी हैं , लेकिन इनमें से कई निर्माता ऐसे भी हैं जिनको अपनी फ़िल्मों के लिये दर्शक भी स्वयं ही तलाशने पड़ते हैं । पर क्योंकि ऐसे निर्माता विदेशों से कुछ इनाम आदि बटोर ही लेते हैं इसलिये सजायाफ्ता की तरह इनामयाफ्ता तो कहला ही सकते हैं । वैसे कम्युनिस्टों की रणनीति में अच्छा फ़िल्म निर्माता वही होता है जिसकी फ़िल्म से आम जनता दूर रहती है । रामानन्द सागर कम्युनिस्टों की दृष्टि में अच्छे और प्रतिनिधि निर्माता नहीं थे क्योंकि उनके धारावाहिक रामायण को देखने के लिये इस देश की जनता अपना सारा काम काज छोड़ देती थी । साहित्यकारों के मोर्चे पर फ़ेल हो जाने के बाद इन फ़िल्म निर्माताओं ने रणभूमि में शक्तिमान की तरह मुट्ठियाँ तानते हुये प्रवेश किया । उनको लगता होगा कि उनको देखते ही देश की जनता उनके साथ ही मुट्ठियाँ भींचते हुये सड़कों पर निकल आयेगी लेकिन हँसी ठिठोली के अलावा इस अभियान में से कुछ नहीं निकला । कुछ दिन उन्होंने भी अपने इनाम बारह वापिस करने में लगाये । उसका हश्र भी वही हुआ जो मेहनत से पाले पोसे तथाकथित साहित्यकारों का हुआ था । अब उतरी है ढोल नगाड़े बजाते हुये अंतिम वाहिनी । यह वाहिनी स्कूलों , कालिजों व विश्वविद्यालयों से रिटायर हो चुके उन अध्यापकों की है जो वहाँ कभी इतिहास पढ़ाते रहे हैं । अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके इरफ़ान हबीब इस सेना के आगे आगे झंडा लहराते हुये चल रहे हैं । उनके साथ रोमिला थापर तो है हीं । के एम पणिक्कर और मृदुला मुखर्जी दायें बायें चल रहे हैं । इस वाहिनी के मार्च पोस्ट से पहले केवल रोमांच पैदा करने के लिये प्रकाश भार्गव नामक वैज्ञानिक से पद्म श्री वापिस करने का बयान दिलवाया गया । लेकिन देश की वैज्ञानिक बिरादरी ने डा० प्रकाश के इस अवैज्ञानिक कार्य की सराहना नहीं की । मार्च पास्ट करती जा रही इतिहास विभाग के अध्यापकों की इस टुकड़ी का भी कहना है कि देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ रहा है । मत भिन्नता को लेकर असहिष्णुता का प्रदर्शन किया जा रहा है । लेकिन नरेन्द्र मोदी चुप हैं , बोलते नहीं । उनको बोलना चाहिये । इरफ़ान हबीब यह नहीं बताते कि यह साम्प्रदायिकता कौन फैला रहे हैं । असहिष्णु कौन है ? इरफ़ान भाई अच्छी तरह जानते हैं कि यह साम्प्रदायिकता उन्हीं की सेना के लोग फैला रहे हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सहायता से खड़ी की गई अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से इसकी शुरुआत हुई थी । इरफ़ान भाई अलीगढ़ विश्वविद्यालय का इतिहास तो जानते ही होंगे ? देश को बाँटने , विभिन्न फ़िरक़ों को आपस में लड़ाने , एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करने का कार्य इरफ़ान भाई की यही सेना कर रही है । रहा सवाल असहिष्णु होने का , सामी चिन्तन से ज़्यादा असहिष्णु भला कौन हो सकता है ? इरफ़ान भाई क्या ख़ुलासा करेंगे कि सामी चिन्तन को इस देश में कौन पाल पोस रहा है ? लेकिन आज हिमाचल प्रदेश के इतिहासकार कहे जाने वाले विपन चन्द्र सूद की बहुत याद आ रही है । कुछ साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गये । नहीं तो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर के साथ मिल कर वही त्रिमूर्ति का निर्माण करते थे । आज होते तो इनके साथ चलते हुये कितने अच्छे लगते । नाचते गाते हुये साम्यवादी खेमे में इतिहासकार कहे जाने वाले ये लोग भी निकल जायेंगे । कुछ देर तक जनता का मनोरंजन होता रहेगा । लेकिन इससे भारत की राष्ट्रवादी शक्तियाँ और भी मज़बूत होकर निकलेंगी क्योंकि उनके पीछे देश की जनता है ।